"मन के कोरे कागज पर"
................................।
मन के इस कोरे कागज पर
खुशियों के रंग अब भरती हूँ
देती उकेंर मन भाव सभी
अब मैं निराश नही होती हूँ।
जो निहित है होना होगा वही
परिणाम नहीं वश में अपने
कर्मों पर वश बस अपना है
विश्वास हृदय भर लेती हूँ।
मन के हारे होती है हार
मन के जीते जीत मिलाजाती है
मन तो चंचल गतिमान सदा
मन अश्व लगाम कस पथ बढ़ती हूँ।
गढ़ती हूँ अब निज कर्मो से
जीवन का हर सपना सुखमय
छोड़ दामन निराशा मायूसियों का
संकल्प भरें मन से डग भरती हूँ।
मन के इस कोरे कागज पर
खुशियों के रंग अब भरती हूँ
देती उकेंर मन भाव सभी
अब मैं निराश नही होती हूँ।।
मैं नारी हूँ
......
मै नारी हूँ,मै नारी हूँ
आधारशिला हूँजीवन की
करती हूँ सृजन मैं जीवन का
करा अमृत पान
पोषण संवर्धन करती हूँ
मै नारी हूँ।
निभाती हूँ दायित्व
हर उम्र में
विभिन्न रूपों में
मुख पर लिए मुस्कान
अडिग रहती हूँ कर्मपथ पर
मै नारी हूँ।
जोड़ती हूँ दो कुलो को
भरती हूँ संस्कार
कच्चें कुम्भ से बचपन में
खुश होती हूँ
अपनों की खुशी में
मै नारी हुँ।
सह लेती जीवन में
सुख,दुख तिरस्कार
धैर्य से
रिश्तों की प्रगाढ़ता के लिये
मै नारी हूँ।
आज गगन मे भरती उँड़ान
ललक फलक छुनें की
हृदय मे जोश भर बुलन्द हौसलों के साथ
निभाती कर्तव्य हूँ
मै नारी हूँ।
मात्र एक दिवस के सम्मान
अधिकारिणी नही मैं
हर दिन अधिकारिणी हूँ
पाने को नारी का
नारी जैसे सम्मान की
मैं नारी हूँ मैंनारी हूँ
जीत हार
जिन्दगी की बिछी बिशात है
कभी शह तो कभी मात है
कभी हार मे जीत का एहसास है
कभी जीत मे हारने का मलाल है।
अब नही दिखती अपनों में
गर्म जोशी आदाब में
स्वार्थ,लोभ मे बँध गये रिश्तें
दिखावें का रिवाज है
हारना चाहे न कोई
आज सबके सिर चढ़ा
जीत का बुखार है
जिन्दगी की,,,,,,,,,,।
हो जाते अपनें भी परायें
जीत के उन्माद में
मर रही संवेदना
चाहत दिलों से आज है
हर शक्श अपनें में सिमटता
अब यही अन्दाज है
जिन्दगी की,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
हारने का दंश गहरा
अगर किसी को लग गया
सालता रहता वो
सालों। . साल है
चलते रहते हार,जीत
जिन्दगी में साथ ,साथ
जैसे संग छाया का चलता
धूप मे संग साथ है
जिन्दगी की,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
धूप
कँपकपाती ठंड में
लगती सुहानी धूप है
रंग सुनहरा गुनगुनी
तन को गरमाती धूप है
कँपकपाती.............
लगती सुहानी..........।।
भेंदती तम धुंध की
चादर कुहरे की घनी
फैलाती उजास जग में
मन को भाती धूप है।
कँपकपाती..........
लगती सुहानी........।।
सकल चर अचर
जीव जन्तुओं पर
छलकाती नेह गागर
काया को आराम देती
लगती सुहानी धूप है।
कँपकपाती...........
लगती सुहानी..........।।
दीनों की हमदर्द सी
वृद्धों की बन औषधि
बालमन में उर्जा भरती
लगती सुहानी धूप है।
कँपकपाती.............
लगती सुहानी..........।।
शिक्षा
शिक्षा है आधार, ज्ञान की ज्योंति जलाये।
सुन्दर सजें संसार,ज्ञान अनमोल पायें।।
मिटें तम अंधकार, मिटे मलीनता मन की।
मुखरित हो उदगार, सजे मग जीवन पथ की।।
शिक्षा है वरदान, अनुपम मातु सरस्वती।
करिये जितना दान,बढ़े प्रतिपल उतना ही।।
करके विद्या दान, सन्तोष मन में पायें।
प्रभु का है वरदान,बाँटकर सुख उपजाये।।
पाकर विवेक ज्ञान, देश का मान बढ़ाये।
मिलती है पहचान, जगत में नाम कमायें।।
मिले मान सम्मान, बढ़े यशगान जगत में।।
भूषित शिक्षा ज्ञान, मिटे अज्ञानता मन से।।
बाल मजदूरी छीनती बचपन
..............................
खेलनें की उम्र मे नन्हें नन्हें
कन्धों पर उठाते बोझ अपना
कभी बिडम्बना नियति की
कभी बेरुखी अपनों की।
शान्त करने को अपनी क्षुधा
किताब काँपियों की जगह
दिनभर ढ़ोते ईट ,गारा ,मिट्टी
खो जाता बचपन धूल के अम्बार में।
ठिठुरती सर्द सुबह बाँटता अखबार
देख स्कूल परिधान मे हम उम्र को
पी जाता ईच्छाओं को आँसुओं के संग
नही जा पाता स्कूल भुख की दरकार से।
उम्र से पहले बड़ें हो जाते बालश्रमिक
उठाये बोझ काँधों पर नही होता विकल्प उनके पास पेट पालनेको जीने को मजबूर अभिश्राप भरा जीवन।
रख देता जब कोई ममता भरा हाथ
शीश पर उनके खिल जाती है मुस्कान
लौट आता है उनका खोंता बचपन
खिल उठती है मन की बगियाँ
बिखेरनें को सुगन्ध सुवास जग में
आओ मिलकर करें पहल
बचायें बचपन को मुरझाने से
थाम उनके हाथ भर दे उनका
दामन ज्ञान के आलोक से
गढ़ सकें भविष्य निज कर्म
के उजास मे चमकें सितारों सा
विशाल जगत व्योम आकाश मे।
आओं करें पहल बचायें बचपन
बाल मजदूरी के तुषारापात से।।
मन्शा शुक्ला
.अम्बिकापुर
..... ..सरगुजा छ.ग।