लघुकथा :उजाले की तलाश

डॉ पंकजवासिनी

वैश्विक महामारी कोरोना- काल में खून के रिश्ते बड़े छोटे पड़ गए! कोरोना- संक्रमण के बाद तो रिश्तों के तार ही टूटने लगे!! अपने ही मांँ-बाप, पति - पत्नी, भाई- बहन, दादा-दादी आदि रिश्तेदारों को संक्रमित जान लोग उनसे अछूतों सा व्यवहार करने लगे और उन्हें छूने तक से डरने लगे। बुखार से तड़पते, साँसों को तड़पते, खाँसी से ठाँय - ठाँय खाँसते परिजनों को लोग एकाकी कमरे में रख अछूतों - सा द्वार पर से ही खाने की थाली सरकाने लगे और महामारी की दहशत से सहमे , बीमारी से जूझते कमजोर बीमार जन (लोग) अपने ही परिजनों के इस अमानवीय व्यवहार से टूटने लगे और जीवन से राग, आशा तथा उत्साह का नाता तोड़ मोह से विमुख होकर धड़ाधड़ मरने लगे। घर में हुई मौत तो कोई पास-पड़ोस या रिश्तेदार झांँकने तक को नहीं आया! परिजनों को सांत्वना के दो बोल क्या देता!! वहीं दूसरी ओर महामारी से हुई मृत्यु जानकर अपने ही कई परिजनों ने अस्पतालों में ही पार्थिव शरीर को लावारिशों की तरह छोड़कर भाग जाना उचित समझा, तो कुछ लोगों ने शव लेने से इंकार कर दिया, वहीं कुछ रिश्तेदारों ने अंत्येष्टि- क्रिया करने से मना कर दिया! पार्थिव शरीर को चार कंधे तक नसीब ना हो पाए!!


 रिश्ते तार तार होते रहे...! मानवता शर्मसार होती रही...!! और पीड़ित जनों को इंसानियत के उजाले की तलाश विकलता से होती रही...!!!


डॉ पंकजवासिनी

असिस्टेंट प्रोफेसर 

भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय

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