रिश़्ते पेड़ पर नही..
उगते साहब!!!
इसे कमाने पड़ते है..।
ये सलामत रहें..
बस इस लिए ही...
तिल-तिल मरने पड़ते है..।
कभी आज को कल में
कभी कल को आज में
रखकर जीने पड़ते है...।
सबको खुशियाँ दे सकें..
बस इस लिए ही...
दर्द उधार लेने पड़ते है..।
बंज़र से बंज़र पड़े हृदय को
नेह के नीर से सींचकर
समर्पण और विश्वास के
बीज बोने पड़ते है..।
तब जाकर कहीं..
लहलहाती है फसल रिश़्ते की..
महकती है बगिया संबंधों की..
और खिलते हैं फूल नेह के...
सच में साहब!!
बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं..
तिनका-तिनका जोड़कर
बनाया हुआ ये घर...
वास्तव में घर लगे ..
बस इस लिए ही...
"ताड़ को तिल" बनाने पड़ते हैं..।
चेहरे पर रखकर हमेशा
इक मुस्कान की रेख..
अभिवादन में क्षण-क्षण..
सिर हिलाने पड़ते हैं...।
कुछ ख़्वाहिशे मरती हैं..
कुछ सपने टूटते हैं..
और कुछ अरमान भी..
गिरवी रखने पड़ते हैं..।
जिंदगी सलीके से चले
बस इस लिए ही...
स्वयं ही स्वयं से..
युद्ध लड़ने पड़ते हैं...।
और क्या-क्या बताऊँ साहब..!
बहुत मोल चुकाने पड़ते हैं.।
सच में ....
रिश़्ते पेड़ पर..
नही उगते साहब!!
इसे कमाने पड़ते हैं..।
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश