कवि महेन्द्र सिंह "राज" की रचनाएं


जेठ का आतप

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(1)

बंजर भूमि धरा व्याकुल, जलहीन जलाशय तड़पेंगे

जब आएगा जेठ महीना, अम्बर से आतप बरसेंगे

पशु पक्षी व्याकुल होंगे, आतप भरा दिन रैन रहेगा

जैसे कट रहे वृक्ष जमीं से, छाया को राही तरसेंगे।

(2)

मध्याह्न का सूरज आग उगलेगा,मौसम होगा बहुत गरम

जीव जन्तु व्याकुल होंगे , रवि कोप न होगा तनिक नरम

अंधड़ युक्त तूफान चलेगा ,गिरेंगे छान छप्पर अगनित

प्राणिमात्र की प्यास बुझाना ,मानव का होगा श्रेष्ठ धरम।


प्रेम की मशाल

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प्रणय निवेदन करते करते, परिणय तक ले आया तुमको। 

पर परिणय के पहले मैंने, कभी न हाथ लगाया तुमको।।

 

यही हमारी संस्कृति प्यारी, यही हमारी पुरा सभ्यता। वचन दियातो उसे निभाया,परिणयकर अपनाया तुमको।।


पास भी आया बातें भी की, हाल चाल भी पूछा तेरा।

पर संयम खुद पर रक्खा,कभी न चोट पहुँचाया तुमको।।


दुनियाँ कहती है कहने दे , सच्चा था तेरा मेरा मन।

तूने जिद ना किया कभी,ना गममें कभी डुबाया मुझको।।


शैशव काल से युवा होने तक ,एक दूजे को दिल से चाहे।

 पर हमने कभी जिद ना की ,ना ही कभी सताया तुमको।।


दोनों कुल की मर्यादा का नित, हम दोनों ने ध्यान रखा। नातूने कभी भुलाया मुझको,नामैंने कभी भुलाया तुमको।।


वही प्रेम, प्रेम सच्चा है, जिसमें वासना की दुर्गन्ध न हो।

प्रेम में मेरे कपट न था,ना जिद कर कभी रुलाया तुमको।।


सुनों ध्यान धर मेरी बातें, दुनियाँ के सब प्रेम पथिक।

मेरा प्रेम निर्मल पवित्र था, कभी नहीं भटकाया उनको।।


प्रेम कंचन है काँच नहीं, जो तपकर होता है स्वर्ण भस्म। 

तुमभी शुचि हृदय पवित्रा थी,कभीनहीं बहकाया मुझको।।


हम मिशाल बने जग में,हो परिणय जीवन सुखी हमारा।

ना तूने कभी गिराया मुझको,नामैंने कभी गिराया तुमको।।


महेन्द्र सिंह "राज"

मेढ़े चन्दौली उ. प्र.

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