निवेदिता रॉय
दुनिया की यही है हक़ीक़त
सबकी अपनी है एक शख़्सियत
तो सब एक जैसे उसूल कैसे माने?
जंगल में भी हर जीव जंतु अपने सलीक़े जाने
इंसान के पास है एक नायाब चीज़
सोचने समझने की है वो तौफ़ीक़
फिर भी लगता अपने इस हुनर से है वो अंजान
इसलिए करता अपनी ही जात को हैरान परेशान
उसूल वो जो ज़िंदगी सँवारे
नहीं वो जो दूसरे की बिगाड़े
सबके अपने हैं उसूल
सबका अपना है एक मुक़ाम
इन उसूलों का एक ही है उसूल
अपने उसूल ख़ुद पर क़ायम तुम रखो
हमारे वाले हम पर लागू हों
अपनी ही शर्तों पर ज़िंदगी यूँ कटती रहे।
निवेदिता रॉय (बहरीन)