कवि हृदय कल्पना सागर

महेन्द्र सिंह राज 

कवि का हृदय कल्पना सागर

नित बनते भावों के जोती

 ढूँढ लाता अंतस से उनको

जैसे सागर के तल से मोती


कवि कल्पना में जीता है

कवि कल्पना में मरता,

अपने मन के भावों को

लिख कागज पर धरता है।


कल्पना के असीम सागर में 

ढूढे़ वह शब्दों के मोती,

फिर पंक्ति में पिरो बनाता

वह निज भावों की जोती। 


पंक्ति पंक्ति जोड़ जोड़कर

वह निज कविता गढ़ता है,

फिर रस अलंकार पहनाकर

छंदों की सीपी में मढ़ता है।


भावों की अभिव्यंजना कभी

छन्दों में नहीं समा पाती हैं,

जैसे सावन की बढियारी नदी

तटबन्धों को तोड़ जाती है।


वैसे तो भावों के सागर में 

रोज ज्वार भाटा आता है,

पर मन रूपी चन्दा में नित

पाकर स्नेह समा जाता है।


अपने भावों के अनुरूप

वह वर्णों को चुनता है,

अरू वर्णों को शब्द रूप दे

फिर मन ही मन गुनता है। 


भावों में यदि अन्तर पड़ता

पुनः प्रयास वह करता है 

बार बार वह सोच सोच कर

निज माथे पर कर धरता है।


कविता वही सफल कविता है 

जिससे जन को कुछ सीख मिले

जिसको पढ़कर लोगों के मन के

उर अन्तस में नव पुष्प खिले।


महेन्द्र सिंह राज 

चन्दौली उ. प्र.

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