धरती से अम्बर तलक, चहुँदिशि हाहाकार
चीख रहा है हर बसर, गैल,बाट,बाजार
अवनी या मरघट हुई, मरघट अवनी या कि?
चकराता है ज्ञान-पटु, देख हाय! संसार।।1।।
पुरखों की अवहेलना, भारी पड़ती आज
धरा धरा पर रह गया, तर्क ज्ञान का साज
कहते सारे शास्त्र, गुरु, कहते वेद-पुराण
तरुओं से अस्तित्व है, तरु से जीव समाज।।2।।
बिना लगाए विटप छिः, चाहे शुद्ध बयास
आरा लेकर छीनते, जो जंगल की साँस
नहीं रुका वन नाश जो, अभिमानी मतिमूढ़
ढोने को नहिं मिलेगा, कल को कोई लास।।3।।
कोरोना कुछ और ना, है निसर्ग का रोष
जब-जब भूमि प्रलय हुआ, मानव का ही दोष
मर्दुम ने जब पार की, लक्ष्मण की यह रेख
विपदा तत्क्षण आ पड़ी, रावण-रूप सरोष।।4।।
विटप लगाओ हर्ष से, कार्य पुनीत महान
अटवी नहीं उजाड़िए, बाँटे पल-पल प्राण
‘साथ-साथ अस्तित्व है, तरु हो चाहे जीव’
वेदों का सच मानिए, परम सनातन ज्ञान।।5।।
रोहिणी नन्दन मिश्र,
इटियाथोक
गोण्डा-उत्तर प्रदेश