गज़ल--
बढ़ते चलो आगे ,कटीली राह बाकी है ।
मिटाने के लिए नादिमों ,कराह बाकी है ।
दीन-यतीम की तरफ भी तो देखें कभी हम,
उनके पास पूँजी मैं, सिर्फ आह बाकी है ।
मासूम बच्चे भूखे , मुफलिसी से बेहाल ,
फिर भी उनको उम्मीदों की चाह बाकी है।
इन्सानियत जिन्दा है अभी हमारे दिल में ,
हमारे पास मुहब्बत सी निगाह बाकी है ।
उनका अफसोस-खामोशी जानना है 'सुलभ'
टूटे दिलों की लेना अभी थाह बाकी है ।
सुभाषिनी जोशी 'सुलभ'
इन्दौर मध्यप्रदेश