विनोद कुमार पाण्डेय
आंखें खुलते शुरू हो जाता
सुखद ज़िंदगी जीने का जंग,
अर्थोपार्जन से आर्थिक समृद्धि,
अधिक से अधिक साधनों की वृद्धि।
हो जाते अलग तरीके से सभ्य,
विकसित करते नया संस्कार,
भूल जाते नि: स्वार्थ करना प्यार,
बंद रखते सभी द्वार-दरवाजे,
पसंद करते पाश्चात्य बाजे।
नहीं मिलता निरंतर सिकुड़न में सुख,
मर जाता जीवन का काव्य,
मुर्छित हो जाती संवेदना,
विलुप्त हो जाता जीवन-संस्पर्श।
भूल चुके जीने का अंतर्मुखी आयाम,
नहीं कर पाये भीतर की समृद्धि,
नहीं सुन पाये अन्तर्मन की आवाज,
जीवन गुजर गया चिंता-तनाव में आज।
आंखें जब देखने लगेंगी हमारे अंदर,
निर्बाध बहेगा आनंद का समंदर।
विनोद कुमार पाण्डेय
शिक्षक
(रा०हाई स्कूल लिब्बरहेड़ी, हरिद्वार)