अरे तुम कौन?कहो तुम कौन?



डॉ देवेन्द्र  शर्मा

मृदुल   मृदु  हास  से  नंदित 

मुझे  नित  प्राप्त  अभिनंदन 

देह  का  रोम-रोम  पुलकित 

झुका  करता  है  अभिवंदन 

न जाने ब्याज से किन-किन 

चरण  मम  छू  ही  लेता जो 

प्रताड़ना   में   मेरी   झट  से 

झुका   निज  शीश  देता  वो 

आवेष्ठित   सा   मुझे   लगता 

लाज  से   देह  का  वह  भौन 

अरे तुम कौन? कहो तुम कौन? 


न   जाने   क्यों   लगा   करती 

उसकी         कांति     निराली 

कौन    से    रंग    से    रंजित 

हैं    ये     कपोल   की   पाली 

पूरित     हैं    वे    निश्चित   ही 

नहीं    दिखती   हैं   वे   खाली 

उनमें     शांति     की     आभा 

और    है    लाज    की   लाली 

तभी   मन   शंक    सी  करता 

कहीं  यह   शीश   जाए  खोन।

 

सु   भावों  की  सी  जो  लगती 

निर्मित     एक     सुंदर     गेह 

विनय     से     दोहरी     रहती 

सदा    वह   वल्लरी   सी   देह 

खिलाती   ही    जो   है   रहती 

यहां     सद्भावना    के     फूल 

कहीं     चुपचाप     ही    रहती 

कभी    जो    पीर   देते    शूल 

कंपित      वेदना      का     तो 

रहता      एक     उत्तर     मौन।


आकर      तुम     अरे     रहते 

मेरे      तन-मन      को      घेरे 

मुझे   किंचित   तो   समझाओ 

कि   तुम    किसके    रहे    प्रेरे 

स्वागत    कर    रही     सिहरन 

कि   शीतल    वात   आती    है  

सुवासित    स्मृतियों   की    यह 

मधुर     सौगात      लाती      है 

समाहित    पावित्र्य   चंदन    सा 

क्या  तुम  हो  मलय गिरी  चंदन।


क्षण   क्षण   में   मिला   करता  

अयाचित       एक     आमंत्रण 

छलकते    हैं   मधु     घट    से 

पल-पल   पर   भरे   रस  कण 

मुझे    मिलते   ही   तो    रहते 

नए     नित     नयन    निवेदन 

युगल   प्राणों    में   है    बहती 

धारा          एक          संवेदन 

क्यों     कर    दे    सके    उत्तर 

कहां   इस   सृष्टि   में वह कौन?


डॉ देवेन्द्र  शर्मा

अलवर (राजस्थान)

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