मत बांधो मुझे !

 


प्रकृति पहले कभी ऐसी ना थी 

नियंत्रण से बाहर  हो चली है आजकल

किसी जिद्दी बच्चे की तरह

पहले मां की डांट फटकार पर 

रोती थी कुछ देर, फिर सब भूल जाती थी

मगर अब तो देखो

कभी बेवजह ही बेसमय रोने लगती है

तो एकाएक मुस्कुरा उठती है।

कभी बड़े-बड़े आंसू गिरा 

सब कुछ तहस-नहस करने पर 

हो उठती है आमदा 

भूल कर सारी मर्यादा 

कभी जला देती है, झुलसा देती है 

अपने तीक्ष्ण किरण बाणों से 

मानो जान लेकर ही थमने का

संकल्प लिया हो इसने

कभी हाड़ कपा देती है ठंड से 

मानो जीवन की गति को रोक देने का 

संकल्प लिया इसने .. ‌........। 


पर क्या कभी सोचा .....?

यह इतनी बुरी तो नहीं थी

सहृदय थी,सहचरी थी

फिर क्यों इतनी बदलती जा रही है 

'मत बांधो मुझे'.. .......

एक आवाज आ रही है 

सोचना होगा,हमें सोचना होगा।। 


      अमृता पांडे 

   हल्द्वानी नैनीताल

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