रंजना बरियार
वय कम थी,
किशोरी, तरूणाई की
संधिस्थल थी...
कोई चाहत न थी।
उर आकाश विस्तृत था,
सारा ब्रम्हाण्ड उसमें समाया था..
कुछ पराया नहीं सब अपना था ,
किसी चाहत का पृथक
अस्तित्व न था...
कुछ पास नहीं,अहसास कहाँ था!
वय बढ़ने लगी,बेड़ियाँ पड़ने लगीं,
हाथ पैर सब जकड़ने लगे,
उर में किसी ने थे ताले जड़ दिए!
खुल जा सिम-सिम,पर ताले नहीं खुले,
जादुई ताले लगे थे,चाभी नहीं मिले थे!
चाहत के अस्तित्व ने धीरे-धीरे,
रोम रोम में प्रवेश किये!
उर की चाभी हैं किसने लिए,
ह्रदय रहित मस्तिष्क से
मैंने तलाश जारी किये,
सफलता कोषों दूर थे पड़े हुए!
चाहत का द्वार खुला...
किसी ने उर में प्रवेश माँगा..
चाभी के अभाव में मैंने
मस्तिष्क में प्रवेश की अनुमति दिया..
उर को छोड़ कोई सिरफिरा,
मस्तिष्क में भला क्यूँ रहे पड़ा!
ह्रदय कपाट बंद,
मस्तिष्क क्रियाशील चलता रहा,
ज़िन्दगी चलती रही ,
सँकरी पगडंडियों सी राहों पे!
चाहत का द्वार तब सुषुप्त,
निढाल पड़ा सो गया!
आया एक समय,किसी ने धरा दिये,
उर के ताले की चाभी, अब
उर में किसी के प्रवेश की आई थी वय!
समय निकल गया था,
चाभी की दरकार गुम गयी थी,
फिर भी ताले खोल दिए गए!
अब डरने लगी किसी के प्रवेश से,
जाने कौन प्रवेश ले, खरोंच दे,
या ह्रदय भित्तियों को उधेड़ दे!
चाहत के पैर अब बढ़ने लगे,
चादर कम पड़ने लगे!
अमुक संवेदनाओं की चाहत थी,
नहीं मिला,ह्रदय रीता रहा !
अमुक हादसों के लिए मैं नहीं बनी थी,
फिर भी मिला,ह्रदय रिसने लगा!
इन्हीं बातों में मैं उलझी रही..
ह्रदय ने कहा चाहतें छोड़,
ज़िम्मेदारियों को देख,
मैंने ह्रदय के आदेश मानें,
ज़िन्दगी की आहुति ने
ज़िन्दगी गुलज़ार किये!
गुलज़ार ज़िन्दगी ने कभी
आँखें नम तो किये,
पर अधरों को विस्तार भी दिये!
अब आत्मा कहती,
सुन बावरी,चाहत का नहीं अब ज़ोर,
आत्मा की पुकार पर
खुल जाता है परमात्मा का द्वार!
भलाई की समिधा से
प्रेम के हवन कुण्ड में हवन कर!
प्रभु की कुंडी खटखटा,
प्रेम भवन के द्वार का साँकल लगा,
चिर विश्राम कर!!
स्वरचित,
रंजना बरियार
25/2/2021