है आदमी

रचना सक्सेना

कड़क धूप आज की,

साँझ की उदासी है, 

जिंदगी भी मौत की, 

बन गयी दासी है, 


चैन सुख लुटा हुआ, 

है आदमी बिका बिका। 


रो रहे है पथ सभी, 

रो रही है वादियाँ, 

कराह उठी है धरा, 

धूल है और आँधियाँ, 

पात सा सूखा हुआ, 

है आदमी मरा मरा। 


नदियाँ खिलखिला रही 

बह रही बहाव में

श्वांस है रुकी हुई 

दर्द बहुत घाव में 

होश भी भुला हुआ

है आदमी डरा डरा। 


रचना सक्सेना 

प्रयागराज 

18/05 /2020

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