बलवान सिंह कुंडू ' सावी '
सूख गए आंखों से अश्क
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
मसान में बैठ मुर्दों का
हिसाब सुबह -शाम लिखता हूं
आए थे कुछ सपने संजोकर
अरमानों की माला पिरोकर
पुरुषार्थ ले भाग्य लेख बदलने
लौटा दिए जब लगी श्वास उखड़ने
मैं उन श्वाशों की तान लिखता हूं
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
पाले थे युवा कुछ ख़्वाब
भर कर उमंग बेहिसाब
पल में दफ़न हुए सब सपने
चले अरब कनाडा प्रारब्ध जपने
मैं उन बिखरते ख्वाबों का नाम लिखता हूं
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
जलती सड़कों पर तपते हलधर
हर हुकूमत ने कुचले वो अकसर
श्रम मज़हब सदा स्वेद शृंगार
नकाबों ने दी नित्य मुफलिसी उपहार
मैं करने उनको बेनकाब सरेआम लिखता हूं
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
शवों के ढेर में सड़ती लाशें
असहाय तड़पती उखड़ती सांसें
खोजती निगाहें संवेदना रोई
हुए रिश्ते बेगाने मानवता खोई
मैं उन रिश्तों के दाम लिखता हूं
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
हवा दवा सब बेच दी चुरा लिए कफन
बिन तर्पण दाह से कैसे हो शमन
राह - ए - जन्नत बन गई अब नियति तमन
दो गज जमीं सबको देना ए मेरे प्यारे वतन
मैं दो गज जमीं का मान लिखता हूं
अब मैं मौत के गान लिखता हूं
मसान में बैठ मुर्दों का
हिसाब सुबह - शाम लिखता हूं