कॅरोना योद्धा

  लघुकथा

मीना माईकेल सिंह

दूर से एम्बुलेंस की पी-पी-पी करती हुई आवाज......एक बच्ची की सिसकी--"मम्मी आज जल्दी आ जाना"मुझे तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता।"हाँ मेरी प्यारी बिटिया,जल्दी आ जाऊंगी" यह आवाज साधना की थी।साधना नर्स थी और कोविड-19 रोगियों के लिये उसकी डयूटी लगी थी।रोज सैकड़ो रोगी आते, जाँच होती और कॅरोना होते ही अस्पताल में भर्ती।

      साधना बड़ी तन्मयता से रोगियों की सेवा करती।यह महीनों से चल रहा था, कभी-कभी वह चार-चार दिन घर नहीं आ पाती थी।घर में दादी के साथ उसकी बेटी रूचि इंतजार करती।पापा काम पर जाते, देर रात लौटते।मम्मी के बिना रूचि का मन नहीं लगता।वह दिन-रात खिड़की से बाहर इंतजार करती।

     समय के साथ रुचि का यह इंतजार,इंतजार ही रह गया।साधना रोगियों के साथ काम करते-करते खुद कॅरोना की शिकार हो गई।उसे भी अस्पताल में भर्ती करवाया गया लेकिन विषाणु का कहर इतना अधिक बढ़ गया कि साधना की हालत दिन पर दिन खराब होती गई।एक दिन उसने सब से बिदाई ले ली।साँसे उखड़ गई।दिन रात मरीजों की सेवा करते करते साधना अपनी बेटी की इन्जार को इन्जार ही बना गई।उसने अपना कर्तव्य निभाया और कॅरोना योद्धा बन गई।

      रूचि आज तक समझ नहीं पाई कि माँ क्यों नहीं आती है ।समझे भी कैसे उसकी उम्र ही क्या है ? पाँच साल की है। आज भी वह टकटकी लगाकर दूर दूर तक खिड़की से बाहर माँ को ढूंढती है।

इंतजार और इंतजार बीच-बीच में सिसकियों की आवाज........


मीना माईकेल सिंह

कोलकाता

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