श्रृंगार धरा की हरियाली

 

शास्त्री सुरेन्द्र दुबे

धरती को कहते हम माता,

पर निशि दिन छेदन करते है।

सीने को चीर करतके नित नव,

अट्टालिका खड़ी हम करते हैं।।


श्रृंगार धरा की हरियाली,

नित नित मानव मद मर्द रहा।

वहशी मानव के तांडव का,

तांडव से बदला फेर रहा।।


जिस वन से मिलता शुद्ध पवन,

शीतल सुरभित मलयज सुगंध।

करता जंगल का नित विनाश,

मानव हत्यारा हो मद मदान्ध।।


भंडार प्रचुर औषधियों का,

वरदान है धरती माता का।

अक्षुण्ण रखता जीवन जीवों का,

 रे पामर विनाश करता उसका।।


भरता विकास का दंभ हृदय,

अब प्राण वायु के लाले‌ हैं ।

अब नृत्य कर रहा काल भाल,

जीवन पर लटके ताले हैं।।


जारी।।।

काव्यमाला कसक 

शास्त्री सुरेन्द्र दुबे अनुज जौनपुरी 🙏🙏🙏

🙏👍

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