लाकडाऊन में प्रवासी मजदूरों के पलायन पर लिखी मेरी कविता आप सभी को समर्पित करती हूं
पद्मा मिश्रा
बनाने चले थे नया आशियाना
तुम्हारे शहर में मिला था ठिकाना
मेहनत के हाथों कमानी थी रोटी
न सपने थे मन मेंउम्मीदेंभीछोटी
दो जून रोटी की चाहत बड़ी थी
कड़ी धूप में जिंदगी आ पड़ी थी
लेकिन ये कैसी विपद आ पड़ी है
मेरे देवता,आज रोटी छिनी है
हमने तो छोटी सी मांगी थी दुनिया
मौत का पैगाम लायी है दुनिया
अकेले सफर में, नहीं साथ कोई
अब जाएं कहां हम ठिकाना न कोई
गरीबों की दुनिया ,भूख की बस बातें ,
बेरोजगारी, में थकी सी है राते
लंबा सफर है,खुले पांव चलना
मिलने की आशा में, सबसे बिछुडना
थके पांव तन्हा और सूनख सफर है
किसको पता था, मौत का यह शहर है
मिटा दो भयावह मौत की ये दुनिया
हमें जिंदगी दो, हमें जिंदगी दो
न छोड़ें उम्मीदें,न हौसले टूटने दें
चलो आज हम ये जंग जीत लाएं,
पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर झारखंड