कोरोना संकट --
कभी श्रृंगार
कभी संहार करे
वो है प्रकृति।
लॉक- डाउन
थमा प्रदूषण भी
फिर भी गर्मी।
गर्मी के दिन
ऊपर से कोरोना
आकुल मन।
कोरोना वार
सर्वोत्तम आहार
है शाकाहार।
बद हवाएँ
सुकून ज़िन्दगी का
हरने आईं।
कोरोना आया
उड़ने लगी रंगत
जन- जन की।
कोरोना काल
पलायन करता
श्रमिक वर्ग।
भयाक्रान्त है
कोरोना के डर से
ये जग सारा।
मजदूर है
बेहाल फटेहाल
कोरोना काल।
कोरोना डर
लौटते मजदूर
अपने घर।
कोरोना काल
घर पर ही रह
बाहर न जा।
कोरोना मार
तू हिम्मत न हार
होगी न हार।
प्रकृति के रूप अनेक -
प्रकृति तेरे है रूप अनेक
किसे मैं सच मानूँ?
किसे मैं झूँठ?
हँसी तेरे है चेहरे पर
जैसे-नव पल्लवित प्रभात
विपुल कल्पना से भरता मन।
खुशियो से-
उमंगों से-
चाहतों से-
क्रोध है तेरे चेहरे पर
जैसे-प्रलय निशा घनघोर
जो कुत्सित संशय से भरता मन।
भय से-
उदासी से-
निराशा से-
ऐसे में घिर जाती हूँ मैं
अनगिनत सवालों से
तेरे कौन से रूप को
मैं सच मानूँ।
डॉ.संगीता पांडेय "संगिनी"
कन्नौज (सर्वाधिकार सुरक्षित)