सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खोते हंस रहे हैं,
इंसां फंस रहे हैं।
बोझ से हैं आजाद,
हर्षित बस रहे हैं।
मानव खूब थकाया,
अब गधे बक रहे हैं।
आदमी थक गए हैं,
ये खर परख रहे हैं।
बुद्धिहीन जो कहते,
खुद खर लग रहे हैं।
कभी नहीं बताया,
वो कैसे मर रहे हैं।
जब बीती खुद पर,
व्यथा समझ रहे हैं।
गधे नहीं हैं नादान,
नर फूल लग रहे हैं।
मनसीरत इंसान है,
पर खर लग रहे हैं।
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)