पूनम शर्मा स्नेहिल
हरी भरी धरती को हम सभी ने क्या से क्या बना दिया। पेड़ काटकर फैक्ट्री, मौल, सुपरमार्केट् ना जाने क्या-क्या ।अपनी सुविधा के अनुसार हम प्रकृति से उसकी हर वह खुशी छीनते चले गए । जिससे वह हंँसती और मुस्कुराती थी।
प्रकृति ने अपना मांँ होने का फर्ज बखूबी निभाया लेकिन आखिर कब तक । उसकी भी तो सहनशक्ति एक ना एक दिन जवाब देनी थी। मांँ की तरह बार-बार प्रकृति हमें सचेत करती रही। कभी तूफान, कभी सुनामी,कभी भूकंप तो कभी बाढ़ के रूप में । इसके बाद भी हम सचेत ना हुए।
दिन पर दिन हमने प्रकृति के साथ अपनी सुविधा के लिए हर पल खिलवाड़ किया अपने अनुसार उसकी नदियों का रास्ता मोड़ दिया अपने अनुसार उसे इस्तेमाल किया । कभी पवित्रता के नाम पर उसमें नहाने के लिए, तो कभी पूजा के सामान को विसर्जित करने के लिए । कभी कारखानों का मेला और जहरीला पानी उसमें प्रवाहित कर दिया । बिना यह सोचे समझे कि उसकी भी बर्दाश्त करने की एक हद होगी ।आज प्रकृति अपनी सभी सहनशीलता ओं को खो कर चुकी है । आज हर रूप में प्रकृति हमसे हमारे ही किए का हिसाब ले रही है, शायद ये हमारे ही किए का परिणाम है कि आज हवा तक जहरीली हो चुकी है । इसे भी जहरीला कहीं ना कहीं हम आप ने मिलकर ही बनाया है । घर के अंदर साफ सफाई रखना हमें बहुत भाता है , परंतु घर के बाहर कौन सी हमारी जगह है। यह सोचकर हम वहांँ गंदगी फैलाते हैं। आज उन्हीं का परिणाम है कि सबकुछ लौटकर हवाओं के जरिए हमारे घरों तक आ चुका है । प्रकृति में अपने हिसाब से जवाब दिया है । इस जवाब का जवाब ढूंँढना वास्तव में मुश्किल होता जा रहा है ।
हम कितने भी आधुनिक युग में प्रवेश क्यों ना कर गए हों, पर आज भी हमें यह याद रखना चाहिए कि हम प्रकृति के अधीन है । परंतु हमने प्रकृति को ही अपना अधीन समझना शुरू कर दिया था। खेतों को खत्म करके वहांँ पर बिल्डिंग खड़ी कर दी । गांँव को तुच्छ बनाकर शहर को भोग विलास का स्थान बना दिया । सभी लोग गांँव छोड़कर शहर की चकाचौंध में आना चाहते हैं । आज शहर की चकाचौंध में है उनको मौत का मंजर साफ नजर आ रहा है। ऐसा नहीं कि गांँव इससे वंचित रह गया । गांँव में भी यह मंजर है परंतु पहुंँचने में काफी समय लगा , क्योंकि वहांँ की प्रकृति की हवा आज भी शहर की हवाओं से शुद्ध होती रहती है।
पहले लोगों के एक हर हुआ करते थे परंतु देखते देखते लोगों ने गांव और शहर दोनों जगह रहने के लिए घर बनवाना शुरू किया इतने पर भी इंसान का पेट नहीं भरा घर तब्दील होकर अब लाइट्स का रूप लेने लगे हर इंसान अपनी हैसियत को दिखाने के लिए एक से कई घर रखता है बिना यह सोचे समझे कि उसका दबाव पृथ्वी पर किस प्रकार बढ़ता जा रहा है आज के समय में इंसान के पास शायद यह सोचने के लिए वक्त ही नहीं बचा तो प्रकृति भी क्या करती आज उसने आपसे आपका वक्त ही खेलना शुरू कर दिया आपके पास प्रकृति के लिए वक्त नहीं था प्रकृति के पास अब आपके लिए वक्त नहीं है अभी भी संभल जाओ इससे पहले कि यह परिस्थितियां और ज्यादा भयावह हो जाए।
2020 में लगे लॉकडाउन में प्रकृति ने हमें यह संदेश दोबारा दिया था , कि अगर हम अपने बेमतलब के इस्तेमाल किए जाने वाले चीजों पर रोक लगाएं तो प्रकृति फिर से अपना पुराना रूप दिखा सकती है । इसका असर आप लोगों ने खुद ही प्रकृति के बदलाव से महसूस किया। परंतु उसके बाद जैसे प्रकृति थोड़ी सामान्य हुई, सभी अपने उसी रंग में वापस आने लगे प्रकृति का क्रोध एक बार फिर से सब पर टूट पड़ा है। इस बार प्रकृति मानेगी या मार कर ही खत्म करेगी । इसका जवाब तो किसी के हाथ में नहीं है , पर फिर भी हमें थोड़ा सोचने की जरूरत जरूर है । कोरोना के दूसरी लहर के बाद अब तीसरी लहर के साथ-साथ यह ब्लैक फंगल का इन्फेक्शन यह भी कहीं ना कहीं इन्हीं सब से जुड़ा हुआ है । समझ नहीं आता कितनी रुष्ट हो चुकी है हमारी प्रकृति हमसे। शायद हमने जरूरत से ज्यादा ही नाइंसाफी की है, प्रकृति के साथ ।
हर घर हर इंसान आज इससे ग्रसित है इसलिए नहीं किए किसी आपदा का प्रकोप है बल्कि इसलिए कि कहीं ना कहीं हम लोगों ने आवश्यकता से ज्यादा प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया।प्रकृति हमारी मांँ जरूर है पर हर माँ की अपनी सहनशीलता होती है । सुबह से शाम तक वह हम सभी का भार अपने ऊपर उठाती है । हमारे हिसाब से वह अपने आपको कई बार परिवर्तित कर देती हैं , परंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि हम उसे अपने हाथ का खिलौना बना लें ।।
हरी-भरी ये धरती हमसे,
हर पल बस करे यही पुकार।
अब तो रुक जा ओ प्राणी ,
बंद कर ये तू अत्याचार ।
तेरी ये निरमम्ता प्राणी,
अब तो नहीं है मुझे स्वीकार।
बहुत सह लिया मैंने तुझको ,
देखकर सांँसों का उपहार ।
अब भी जो तू ना सुधरा तो ,
फिर होगा बस मेरा प्रहार ।
अब भी जो तू ना सुधरा तो ,
फिर बस होगा मेरा प्रहार ।
होगी सृष्टि फिर से विलीन ,
इसी धरा में अब इक बार ।।
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