विनय विक्रम सिंह के दोहे

 


नाक अगर ऊँची हुई, छूती हो आकाश।

उस से दूरी पर रहो, वह अपयश का पाश।।

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आते-जाते घटती रहे, आयु कपूर समान।

श्वास भरी घट कुम्भ है, ठहरी दिखता प्राण।।

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आते-जाते घट रही, आयु कपूर समान।

श्वास भरी घट कुम्भ है, ठहरी दिखता प्राण।।

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सूत कते रेशा कसे, पूनी घूमे गोल।

कसो श्वास के तार पर, चरखी तन की तोल।।

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सरग-नरक दुइ भाँत हैं, क्रोध प्रेम कै रूप।

कर बिचार अपनाय जे, रंक बनावै भूप।।

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पाँव पसारे खाट पै, पहुँड़ा जाँगर चोर।

खेत चरै सूखा परै, धुत्त नचावै मोर।।

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मनई बावर धन भए, तन की बाढ़ै भूख।

संतोखी जीवै सहज, रोटी भावै रूख।।

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कागा कूजन कबु करै, कोयलि कबु टर्राय।

दादुर टेरै कबु मधुर, स्वर सुभाव बर्राय।।

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गागरि जल सीतल धरै, बाहरु कितन्यौ ताप।

अंतस तेरा ईस है, जग कल्हरै तू जाप।।

🌷    

तन घुनहा भुरकुस भया, घुन जस समझु मकार।

अजपा जप जस श्वास कै, आवै जाय रकार।।


- विनय विक्रम सिंह 

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