फिर बहार आएगी

डॉ पंकजवासिनी

हो अँधेरा कितना भी घना रे! 

घन तम को चीर रश्मियांँ झिलमिलाएंँगी 

पसरा मौत का सन्नाटा तो क्या 

ले खुशियों की सौगात फिर बहार आएगी 


घना कुहरा छाया है तो क्या

गुनगुनी धूप धरा पर फिर पसर जाएगी 


उजड़ा है पतझड़ में वन उपवन 

हरे होंगे शाख कलियाँ मुस्कुराएंँगी 


घुल गया अभी जहर हवाओं में 

मलय वातास ले हवा फिर गुनगुनाएगी 


सूनी हैं सड़कें बंद दुकानें 

धैर्य धरो फिर रौनक वापस आएगी 


खो गई मुस्कान जिन अधरों की 

हृदय वीणा फिर से नए साज बजाएगी 


संकट के बादल हैं मंडराते

अविरल जीवन ज्योति कभी न रुक पाएगी 


छिन्न भिन्न कर दुख संकट के पर्वत 

आशादीप ले साहस कर में बढ़ जाएगी 


दुख संघनित हैं धीर धर रे मन! 

पीड़ा के हिम पिघलेंगे फिर बाहर आएगी 


कोरोना दंश तूफानी विध्वंस

सबको जीत प्रचंड जिजीविषा खिलखिलाएगी


*डॉ पंकजवासिनी* 

असिस्टेंट प्रोफेसर 

भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय

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