रो पड़ी है जिंदगी भी

ललिता पाण्डेय 

रो पड़ी है जिंदगी भी आज 

देख हदय चीरती वेदना को देखकर

सोच कर खड़ी हुई

किए सवाल स्वयं से ही


क्या मेहनतकश क्या अमीरी

खड़ी है आज दोनों हाथ फैलाए।


सांसे कीमती होती है आज मालूम हुआ

कैसे स्वप्नों की कतरने छू रही है आसमां

लगा श्मशान को गले

कुछ पड़ी कतार में

लिए बांस का सहारा

कुछ ने तय कर लिया

नदियों का ये रास्ता

और कुछ बनी है उपभोक्ता

की जिह्वा का स्वाद।


क्या ये जिंदगी है खुशनुमा

जिसके रंगीन स्वप्न देखकर

मानव मुस्कान बिखेरता है

क्या नही रह गई कीमती अब मेरी।


जिंदगी रो रही है

सोच कैसे घटा मोह मेरा

शायद जब घुटती सांसो ने

छोड़ा दामन होगा

और ले गई संग उम्मीदे,विश्वास प्रेम आस्था मुस्कान अपनो की

तो अब बचा क्या?


ललिता पाण्डेय 

दिल्ली

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