माँ:-प्रेम का अथाह सागर*

सुखविंद्र सिंह मनसीरत 

माँ प्रेम का अथाह सागर है,

मीठे शहद से भरी गागर है।


माँ अनोखा है जग में रिश्ता,

सारे रिस्तों का ये आधार है।


औलादें जब करती बेकदरी,

यह हरकत बड़ी शर्मसार है।


बच्चे छोड़ते हैं जब अकेली,

माँ हो जाती तब लाचार है।


ताउम्र गृहस्थी का भार ढोते,

समझते माँ बाप को भार हैं।


खुद भूखे पेट रह सो जाती,

पर बच्चों को देती आहार है।


माँ से बनता घर एक मन्दिर,

माँ से ही सारा घर संसार है।


भूखी नहीं है वो अन्नधन की,

ढूँढती रहती घर में प्यार है।


माँ लौट कर कहाँ है आती,

यही जिंदगी की बड़ी हार है।


जहाँ पर माँ का न हो प्रकाश,

वहाँ रहना समझिए बेकार है।


माता की ममतामयी है नजर,

खुशियों का लगता अंबार है।


जहाँ पर हो जननी का वास,

घर मे बहती गंगा की धार है।


मनसीरत माँ बिन है अकेला,

मन में भरा गम का गुब्बार है।

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सुखविंद्र सिंह मनसीरत 

खेड़ी राओ वाली (कैथल)

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