राकेश चन्द्रा
लोक खूंरेजी को जबसे होली कहने लगे
मेरे बरसों पुराने घाव फिर से नये होने लगे.
इस शहर में हादसों का शोर भी उठता नहीं,
सर खुशनुमाओं के यहॉं जब से कलम होने लगे.
घुंघरुओं का दर्द भी अब तो नया लगता नहीं,
बारूद की हूरों से जब से कारवां सजने लगे.
इशारों की जुबॉं को भी अब लोग समझते नहीं,
दोस्ती के हाथ जब से बेवजह कटने लगे.
सहमी हुई फिजा है अब रात भी ढलती नहीं,
प्यार के दीयों से जब से तूफॉं लड़ने लगे.
सर उठाता भी नहीं ‘‘राकेश’’ सियाह रात में,
जंग में हारे थे जब से हम गज़ल कहने लगे.
राकेश चन्द्रा
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सीतापुर रोड, लखनऊ
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