प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
अच्छा सुनो!!
अब तो मौसम भी...
बदल गया है..
हवा शुद्ध हो चली हैं
वृक्ष फलों से लदकर..
बहुत गंभीर हो गये हैं..
राहें स्वच्छता की
मिसालें दे रही हैं
नदियाँ फिर से
कल-कल की ध्वनि से
संगीतबद्ध हो गई हैं
समन्दर में लहरों के वेग
मानो आसमां के कान में
कुछ कहने को आतुर होने लगे हैं
सूरज की किरणें..
धरा पर बिखरकर
स्वर्ण के आभूषण जैसे
सुसज्जित हो रही हैं..
पंक्षियों के झ़ुंड बाग में बैठकर
कलरव करने लगे हैं..
कोयल मीठे राग में
प्रेम गीत गाने लगी है..
मोर बादलों के सानिध्य में
मनमोहक नृत्य करने लगे हैं..
समस्त धरा हरी-भरी,
समृद्ध हो चली है..
ऐसे में जब समस्त सृष्टि
बदलाव के मुहाने पर खड़ी है..
तुम भी बदल जाओ न..!
अंतर्मन में चलता द्वंद युद्ध
अब हार जाओ न...!
हृदय को परिवर्तन की प्रकृति
समझा लो न...!
रुढ़ विचारों को..
मस्तिष्क से निकालकर
पुराने जर हो चुके..
स्वप्न अब तोड़ जाओ न..!
बिल्कुल उसी तरह..
जिस तरह कि वृक्ष
अपने कलेजे से लगे
जर पत्तों को
बड़ी कठोरता से
त्याग देता है..
ताकि उसपर..
नव जीवन का उत्साह लिये
नवकोपलें सुसज्जित हो सकें..
अब तुम भी अपने अंदर के
जर विचारों को
छोड़ आओ न..!
सच ही तो कहती हूँ..
अब तुम भी बदल जाओ ...न!!
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश!