डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव
मित्रों नमस्कार,
इस उलटी यात्रा में मैं डॉ.एस के पाण्डेय जी के एक लेख जो मुझे बेहद पसंद आया उसमे अपने अन्य अनुभवों को जोड़ते हुए उससे आप को बुढ़ापे से बचपन की तरफ़ ले चलने का एक छोटा सा प्रयास करता हूँ,शायद मेरी तरह आप को भी अपना बचपना याद आ जाये,जो स्मृतियाँ मानस पटल से विस्मृत हो चुकी हैं,वे पुनः एक बार तरो ताजा हो जाये।
समाज के हमारे वे साथी जो 50 की उम्र को पार कर गये हैं या उसके करीब पहुँच रहे हैं उनके लिए विशेषकर यह एक खास प्रयास का प्रसंग है।
मेरा यह मानना है कि दुनिया में जितना बदलाव हमारी पीढ़ी ने देखा है, हमारे बाद की किसी पीढ़ी को भविष्य में "शायद ही " इतने बड़े बदलाव देख पाना संभव हो सके।
हम_वो आखिरी_पीढ़ी_हैं जिसने बैलगाड़ी से लेकर सुपर सोनिका जेट तक देखे हैं। बैरंग ख़त से लेकर लाइव चैटिंग तक देखा है,और "वर्चुअल क्लास,ऑनलाइन लर्निंग ,ज़ूम क्लाउड मीटिंग जैसी" असंभव लगने वाली बहुत सी बातों को सम्भव होते हुए देखा है।
हम_वो_ "पीढ़ी" _हैं
जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर अपनी दादियों और नानियों से परियों और राजा रानियों की कहानियां सुनीं हैं। जमीन पर बैठकर खाना खाया है। प्लेट में डाल डाल कर चाय पी है। बासी रोटी में नमक और तेल लगा कर खाया है। चाय में लाई डाल कर खाया है। महुये का मीठा गुलगुला,जोंधरी के आटे का मीठा पना, तरह तरह के अनाजों का भुना चबैना और रिकोंछ,रसाज,मुंगौरी ,फुलौरी इत्यादि न जाने क्या क्या खाया है।
हम वो " लोग " हैं ?
जिन्होंने बचपन में मोहल्ले के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे ,कौड़ी,तिउरा, चिब्भी कूद,रस्सी उछल कूद,जैसे खेल खेले हैं ।
हम आखरी पीढ़ी के वो लोग हैं ?
जिन्होंने चाँदनी रात,डीबली,लालटेन,मिटटी के तेल की चिमनी या बल्ब की पीली रोशनी में होम वर्क किया है। हम दिन के उजाले में चादर के अंदर छिपा कर नावेल भी पढ़े हैं।
हम वही पीढ़ी के लोग हैं ?
जिन्होंने अपनों के लिए अपने जज़्बात, पोस्ट कार्ड,अंतर्देशीय पत्र और लिफाफे द्वारा अपने खतों में आदान प्रदान किये हैं। और उन ख़तो के पहुँचने और जवाब के वापस आने में महीनों तक इंतजार किया है। यहाँ तक कि पैसे न रहने पर अपने पत्रों को बैरंग भी भेजा है,और कभी कभी ख़त जल्दी पहुँचने की आस में भी बैरंग भेजा है।
उस ज़माने में बैरंग खतों को पोस्टमैन आ कर हमें खत देकर उसका पैसा ले लेता था।
हम उसी आखरी पीढ़ी के लोग हैं ?
जिन्होंने कूलर, एसी या हीटर के बिना ही बचपन गुज़ारा है। और बिजली के बिना भी गुज़ारा किया है। गर्मियों में हाथ के बिने तरह तरह के पंखों को हवा के लिए झलते हुए दिन और रात बिताया है।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जो अक्सर अपने छोटे बालों में, सरसों का ज्यादा तेल लगा कर, स्कूल और शादियों में जाया करते थे। कहीं ब्रम्हभोज का निमंत्रण आने पर पानी पीने का अपना लोटा या गिलास साथ में लेकर जाते थे और बिछी हुयी जाजिम पर बैठते थे,जब आयोजक खाने के लिए आवाज लगाता था तो अपने ऊपर के वस्त्र उतार कर जाजिम पर रख खाने की पंगत में बैठते थे।
हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं ?
जिन्होंने स्याही वाली दावात या पेन से कॉपी, किताबें, कपड़े और हाथ काले, नीले किये है। तख़्ती पर कज्जी पोत कर सुखाये हैं और तख़्ती को शीशी से घोंट कर चमकाये हैं,फिर उस पर भीगी खड़िया मिटटी में धागा डालकर उससे तख़्ती पर सत्तर यानी लाइन खींचे हैं और उसपर सेठे की क़लम से लिखा है पंडित जी गुरूजी को दिखाया और फिर पानी के हौदी में अपनी तख़्ती धोई है।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जिन्होंने टीचर्स से मार खाई है। और घर में शिकायत करने पर फिर मार खाई है।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जो मोहल्ले के बुज़ुर्गों को दूर से देख कर, नुक्कड़ से भाग कर, घर आ जाया करते थे। और समाज के बड़े बूढों की इज़्ज़त डरने की हद तक करते थे।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जिन्होंने अपने स्कूल के सफ़ेद केनवास शूज़ पर, खड़िया का पेस्ट लगा कर चमकाया हैं। स्कूल में बैठने के लिए अपने बस्ते के साथ एक बोरी भी लेकर जाते थे।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जिन्होंने गोदरेज सोप की गोल डिबिया से साबुन लगाकर शेव बनाई है। जिन्होंने गुड़ की चाय पी है। काफी समय तक नीम या बबूल की दातून किये , सुबह काला या लाल दंत मंजन या सफेद टूथ पाउडर इस्तेमाल किया है और कभी कभी तो नमक तेल से या लकड़ी के कोयले से भी अपने दांतों को साफ किए हैं।
हम निश्चित ही वो लोग हैं ?
जिन्होंने चांदनी रातों में, रेडियो पर BBC की ख़बरें, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो, बिनाका गीत माला और हवा महल जैसे प्रोग्राम पूरी शिद्दत से सुने हैं। उस ज़माने में हमने पोस्ट ऑफिस में रेडियो शुल्क भी जमा किया है। पहले रेडियो सुनने का लाइसेंस होता था और उसका शुल्क जमा होता था।
हम वो आखरी लोग हैं ?
जब हम सब शाम होते ही छत पर पानी का छिड़काव किया करते थे। उसके बाद सफ़ेद चादरें बिछा कर सोते थे। एक स्टैंड वाला पंखा सब को हवा के लिए हुआ करता था। सुबह सूरज निकलने के बाद भी ढीठ बने सोते रहते थे। वो सब दौर बीत गया। चादरें अब नहीं बिछा करतीं। डब्बों जैसे कमरों में कूलर, एसी के सामने रात होती है, दिन गुज़रते हैं।
हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं ?
जिन्होने वो खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं, जो लगातार कम होते चले गए। अब तो लोग जितना पढ़ लिख रहे हैं, उतना ही खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन, व निराशा में खोते जा रहे हैं। रिश्ते केवल दिखावटी बनावटी और बिना आत्मिक प्रेम के हो गए हैं।
हम वो खुशनसीब लोग हैं ?
जिन्होंने रिश्तों की मिठास महसूस की है...!! घर में नाना,मामा, बाबा,चाचा,बुआ,फूफा मौसी मौसा आदि के आ जाने पर चेहरा खिल जाता था और उनके आदर सत्कार में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती थी।अन्य पकवानों और चीजों के अतिरिक्त आटे की बरिया,हलुआ,चने की घुघुरी,खीर,सरबत
इत्यादि मौसम के अनुसार जरूर बनता और दिया जाता था।
और हम इस दुनिया के वो लोग भी हैं , जिन्होंने एक ऐसा "अविश्वसनीय सा" लगने वाला नजारा भी देखा है ?
आज के इस करोना काल में परिवारिक रिश्तेदारों (बहुत से पति-पत्नी,बाप-बेटा,भाई-बहन आदि ) को एक दूसरे को छूने से डरते हुए भी तो देखा है। पारिवारिक रिश्तेदारों की तो बात ही क्या करें, खुद आदमी को अपने ही हाथ से , अपनी ही नाक और मुंह को , छूने से डरते हुए भी देखा है।
" अर्थी " को बिना चार कंधों के , श्मशान घाट पर जाते हुए भी देखा है।
"पार्थिव शरीर" को दूर से ही "अग्नि दाग" लगाते हुए भी देखा है। यहाँ तक कि कोरोना से हुयी मौत की डेड बॉडी को परिवार के सदस्यों द्वारा उसे न लेते हुए भी तो देखा है।
हम आज के भारत की एकमात्र वह पीढ़ी है ?
जिसने अपने " माँ-बाप "की बात भी मानी डांट भी खाई और कोई गिला शिकवा नहीं किया , और " बच्चों " की भी मान रहे है , उनकी सुन रहे है, किन्तु उन्हें डांट नही सकते। यहाँ तक कि वे बच्चे आज हमें ,अपने माँ-बाप को डांट रहे हैं और हम बरदाश्त कर रहे हैं।
शादी मे (buffet) खाने में वो आनंद नहीं है जो कभी पंगत में बैठ कर खाने में आता था जैसे....
सब्जी देने वाले को गाइड करना
सब्जी हिला के देना या तरी तरी देना।
उँगलियों के इशारे से 2 लड्डू और गुलाब जामुन,
काजू कतली लेना
पूड़ी छाँट छाँट के और गरम गरम लेना।
पीछे वाली पंगत में झांक के देखना क्या क्या आ
गया। अपने इधर और क्या बाकी है।
जो बाकी है उसके लिए आवाज लगाना
पास वाले रिश्तेदार के पत्तल में जबरदस्ती पूड़ी रखवाना। रायते वाले को दूर से आता देखकर फटाफट रायते का दोना पी जाना ।
पहले वाली पंगत कितनी देर में उठेगी। उसके
हिसाब से बैठने की पोजीसन बनाना और
आखिर में पानी परसने वाले को खोजना।
एक बात बोलूँ,
इनकार मत करना।
ये बुढ़ापे से बचपन की उलटी यात्रा के लेख को जितने मरजी, उतने लोगों को भेजें,जो इस मेसेज को पढ़ेगा
उसको उसका बचपन जरुर याद आ जायेगा।
वो आपकी वजह से भले ही कुछ देर के लिए ही सही किन्तु अपने बचपन में चला जाएगा।
और ये आपकी तरफ से उसको सबसे अच्छा गिफ्ट होगा। आप का हार्दिक आभार डॉ.एस के पाण्डेय जी आप के लेख से बचपन की यादोंनको इसमें हमें भी अपने कुछ अनुभव साझा करने का अवसर मिला। इसी लिए इस लेख को मैंने बढ़ा कर लिखा। अभी तो और न जाने कितने अनुभव हैं जो बाकी पड़े हैं,जिसे एक लेख में ही समाहित कर पाना संभव नहीं है। लेकिन हाँ हम निश्चित ही उस पीढ़ी के लोग हैं,जिसे शायद अब देख पाना सबके लिए संभव न हो।
आप सभी स्वस्थ रहें,कोरोना मुक्त रहें, दीर्घायु रहें।
डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
इंटरनेशनल एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर,नार्थ इंडिया
2020-21,एलायन्स क्लब्स इंटरनेशनल,प.बंगाल
संपर्क : 9415350596