समय की नियति निरंतर गतिशीलता ही है। वह कभी नहीं रुकता। अच्छे-बुरे प्रभाव और परिस्थितयों के साथ वह बढ़ता ही रहता है। विगत 13-14 महीनों से हम सभी कोविड-19 जनित भयावह कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं। अपना देश ही नहीं समूचा विश्व चपेट में है। आज हम सब दुनिया की सारी जद्दोजहद छोड़ बस जान बचाने में लगे हैं। यह वह समय है जिसकी कल्पना आज से डेढ़ साल पहले तक किसी ने भी नहीं की होगी। स्पष्ट है कि भविष्य का किसी को बोध नहीं। तो क्यों न प्रयास किया जाये कि हमारा भविष्य सुरक्षित हो और सुखमय भी। इसके लिए हमें प्रकृति के साथ जीने का भाव एवं अभ्यास करना होगा।
जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ अपने दैनिक जीवन में चंद बदलाव लाने की, प्रकृति के साथ ईमानदार होने की, आत्मीय रिश्ता बनाने की। हम सब जीवन बीमा कराते हैं, हम सब मेडिक्लेम लेते हैं क्योंकि हमें डर है अपने स्वास्थ्य और जीवन का। और यह सर्वथा उचित भी है। डर ही हमें सुरक्षित होने को प्रेरित करता है। फिर हम उन नि:शुल्क प्रकृति प्रदत्त उपहारों को क्यों नज़रन्दाज कर रहे हैं जिनसे हमारी, हमारे परिवार की और हमारे समाज की सलामती जुड़ी है। समय की दौड़ में भागते-भागते आगे बढ़ने की होड़ में हम प्रकृति से अपनेपन की भावना के साथ बहुत कुछ पीछे भूल आये हैं। हम इतना भूल गए कि कई औषधियों के विषय में तो साल भर से ही सुना है जबकि यह सब हमारे ही आस-पास थीं हमेशा से। सभी बातें सदियों से लगभग हर समुदाय में मान्य थीं बस हमने अत्याधुनिकता के व्यामोह एवं जीवन शैली में उन्हें अनदेखा कर दिया था।
मैं ये नहीं कह रही कि इन सबमें कोरोना का इलाज है, उसके लिए तो यदि किसी को भी लक्षण दिखें तो सीधे डॉक्टर की ही सलाह लें। देर करना जानलेवा बन रहा है। मैं बात कर रही हूँ उनकी जो स्वस्थ हैं और अपने घरों में है, जिनका समय घर के भीतर tv पर निराशाजनक और चिंतित खबरें देखने में बीत रहा है। आप अपने समय को रचनात्मक बना सकते हैं। आपके प्रयास आपका कल निश्चित संवारेंगे। यकीन मानिये पर्यावरण ही हमारा सबसे अच्छा मित्र भी है और शत्रु भी। बस देखना ये है कि हम इससे कैसा रिश्ता रखते हैं। तो आइये कुछ प्रयास करें कोरोना काल में मिली सीख को दिनचर्या में शामिल करने की। शिक्षकों के रचनात्मक मैत्री समूह 'शैक्षिक संवाद मंच' ने वायुमंडल शुद्धिकरण लोक अभियान का प्रारम्भ किया है जो 10 मई से 5 जून तक चलने वाला है। मंच के संस्थापक प्रमोद दीक्षित मलय कहते हैं कि अब अपनी जड़ों की ओर लौटने का समय आ गया है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ मां का सम्बंध रहा है। प्रकृति से आवश्यकता भर लें, संग्रह एवं शोषण उचित नहीं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्वों से देह निर्मित है जो वात, पित्त एवं कफ के संतुलन से ही स्वस्थ रहती है। यह अभियान इसी दिशा में एक सार्थक पहल है।
समय की जरूरत है कि घर या अपने आस-पास नीम, पीपल, शमी, गिलोय, पारिजात आदि के पेड़ लगाएं और समय समय पर उनका उपयोग करते रहें। हरियाली को गले लगाकर निश्चित ही हम बीमारी दूर भगा सकते हैं। दूसरा घर में लौंग, कपूर, लोबान, गुग्गुल, गुड़, अक्षत, जौ, तिल, नीम के पत्ते, सेंधा नमक आदि से नित्य प्रति हवन करें और उसका धुंआ पूरे घर तक पहुचायें। यह हमारे वातावरण की शुद्धि का मार्ग खोलेगा। नियम बनाकर दिनचर्या में योग और प्राणायाम शामिल करें। खाली पड़ी मशीन के पुर्जे भी जम जाते हैं यदि उनमें समय समय पर तेल न डाला जाए, फिर यह तो हमारा शरीर है। इसके प्रति हमारी इतनी तो जिम्मेदारी बनती ही है। हमें चाहिए हम भोजन को सात्विक बनाएं। ज्यादा नमक, तेल/घी और चीनी ही ज्यादातर समस्या को जन्म देती है। उनका संतुलित उपयोग ही करें। दिन में एक बार दूध में हल्दी जरूर लें। और अंत में सबसे मुख्य बात कि मन को सकारात्मक रखें। दूसरों की मदद करने से न हिचकिचाएं। आपका तनिक सहयोग किसी को जीवन दे सकता है।
यकीन मानिए यदि हमने कुछ भी मानना शुरू कर दिया तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा। कहते हैं न डूबते को तिनके का सहारा, तो बस ऐसा ही कुछ समझिये। हमारा पर्यावरण, हमारा स्वास्थ्य सब एक ही गाड़ी के पहिये हैं। किसी में भी दिक्कत आयी तो प्रभावित गाड़ी की गति ही होगी। इसे अविराम बनाना हम सब का दायित्व है। आशा करती हूँ इस पहल को हम सब मिलकर आन्दोलन का रूप दें सकेंगे, जो हमारे भविष्य का नवीन सुनहरा पृष्ठ लिखेगा। जहां प्रकृति खुशहाल होगी और हम मानव सहित सभी जीव-जंतु भी।
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लेखिका शिक्षिका हैं और शैक्षिक संवाद मंच उ०प्र० से जुड़ी हैं, फतेहपुर (उ.प्र.)