डाॅ शाहिदा
अजब सा है अब महफ़िल का चलन,
वह बस रूठा रहे और, हम मनाते रहे।
जो हम पे है गुज़री वो उसको क्या जाने,
दास्ताँ अपने दिल की, हम सुनाते रहे।
आग का दरिया है जिन्दगी का सफ़र,
काग़ज़ की नाव पानी में, हम बहाते रहे।
धोखा, फ़रेब, हमको रोज़ मिलता रहा,
आँखों में अश्क लिये,हम मुस्कुराते रहे।
जहाँ के दर्द से जो अनजान है अब तक,
प्यार का सबक़ उसे , हम सिखाते रहे ।
शब भर दीवारों से गुफ़त्गू करके ' शाहिद ',
थपकियों से अरमानो को, हम सुलाते रहे।