ग़ज़ल

 


समीर द्विवेदी नितान्त


यूँ ही नहीं मुझे कहते हैं लोग अहले नजर..।।

तमाम उम्र कडी धूप में किया है सफर..।।


अगर बहा सरेमहफिल तो होगी रूसवाई...

ओ मेरे अश्क जरा देर आँख ही मे ठहर..।।


न जाने कैसी हवा चल पडी जमाने में....

उदास उदास नजर आ रहे हैं अहले नजर..।।


कोई गिरा तो कुचल कर निकल गया उसको...

है कितना तेज रौ इक्कीसवीं सदी का वशर..।।


तलाश जारी रखो इस यकीं के साथ नितान्त...

बहुत करीब है मंजिल बहुत करीं है सहर..।।


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