जाने कहाँ खो जाती हूँ मैं

 

डॉ अलका अरोडा

कोई जब पुकारता मुझको

भला कुछ चाहता मुझसे

मैं सुनकर सुन ना पाती हूँ

सिर्फ मुझको बुलाता हो

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


किसी को आस बन्धानी हो

किसी को श्वास दिलानी हो

किसी की प्यास बुझानी हो

सिर्फ मुझको बुलाता हो

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


जब बहुत तन्हा रहे कोई

उसे कोई राह ना सूझे

बेवजह तन्हाई में घूमे

सिर्फ मुझको बुलाता हो

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


कोई लम्हा जो जाता हो

वो इक पल ना लौट आता हो

वो गम को छिपाता हो

सिर्फ मुझको बुलाता हो

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


वो दूरी जो मिट ना पायेगी कभी

वो मजबूरी नजर आये ना कभी

मुझे आवाज देता कोई

सहारा चाहता कोई

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


आवाजे जब भी धीमी हो

खामोशीयाँ जानलेवाँ हो

कोई दुनियाँ से जाता हो

मेरा मिलना जुरूरी हो

जाने कहाँ

खो जाती हूँ मैं


डॉ अलका अरोडा

प्रोफेसर - देहरादून

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