गणपति बप्पा मोरया

वीणा गुप्त

गणपति , देवगणों में प्रथम पूजनीय। शक्ति स्वरूपा मां पार्वती का सृजन। शिव पुत्र।शक्ति और शिव का संतुलन ही बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। सदमार्ग पर  प्रेरित बुद्धि ही समस्त मंगलकार्यों  का विरोध करती है।इसी विवेक बुद्धि की याचना करते हैं हम मंगल मूर्ति गणपति से। जब विवेक हमारे कार्य का नियामक होता है तभी निर्विध्न लक्ष्य प्राप्ति  होती है और इसी अभीष्ट सिद्धि के लिए हम सर्वप्रथम वंदना करते हैं वरद हस्त गणपति की।

          गणपति बुद्धि निधान हैं।पुराकाल में देवों में प्रथम पूजनीय कौन?जब यह प्रश्र उठा , तो उन्होंने अपने बुद्धि बल के सहारे यह पदवी सहज ही प्राप्त कर ली। अन्य देवगण  जहां पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए अपने अपने वाहन पर आरूढ़ हुए, वहां गणपति ने अपने माता-पिता की परिक्रमा मात्र से ही यह कार्य  सहज संपन्न कर लिया। सच ही तो है माता-पिता ही तो सम्पूर्ण सृष्टि हैं,उनकी परिक्रमा कर ली तो धरती पर कुछ भी अगम्य नहीं रह जाता।

          उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनके पावन मनोहर रूप का दर्शन करने पर यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाती है। उनका विशाल सिर उनकी व्यापक बुद्धि का परिचायक है। नीर-क्षीर विवेक वाली उनकी बुद्धि का परिचय हमें उस समय मिल जाता है जब महर्षि वेदव्यास अपने विराट महाकाव्य महाभारत की रचना करने वाले थे । महर्षि के मन में बहुत तीव्रता से भाव- उच्छलन हो रहा था,ऐसी स्थिति में उनको लिपिबद्ध कर पाना असम्भव था। इसके लिए उन्हें एक दक्ष लिपिक की आवश्यकता थी। ऐसे समय में गणपति जी ने उनकी समस्या का निदान किया,और इस जटिल कार्य को सहर्ष करना स्वीकार किया। गणपति की लेखन 

गति बहुत तीव्र थी, उन्होंने महर्षि के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि उनका लेखन कार्य निर्बाध चलना चाहिए। यदि उनकी लेखनी क्षणांश को भी रूकी तो वे यह कार्य बीच में ही छोड़कर चले जाएंगे। गणपति का प्रस्ताव इतना सरल नहीं था।  उद्दामगति से उठते भावों को छंदबद्ध करने और काव्य रूप देने में व्यास जी को कुछ समय तो लगना ही था। वे दुविधा में पड़ गए, लेकिन शीघ्र ही एक सुंदर समाधान भी सहज रूप में उनके मन में आ गया। उन्होंने गणपति के प्रस्ताव को सशर्त स्वीकार किया।

जिसके अनुसार यह सुनिश्चित किया गया कि ऋषि जो भी काव्य रचना करेंगे, गणपति  उसका भाव आत्मसात करने के बाद ही उसे लिपिबद्ध करेंगे। गणेश जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और इस प्रकार विश्व के सबसे बडे़ महाकाव्य की रचना संपन्न हुई। धन्य हैं ऐसे कवि और ऐसे लिपिकार।

           गणपति का प्रशस्त भाल, उनकी संकीर्णता रहित बुद्धि की व्यापकता का प्रतीक है।उनकी विशाल गज सूंड उनके अपार शक्ति सामर्थ्य की द्योतक है। वे अपनी इस कर से जहां एक ओर वृक्ष के समान बड़े-बड़े अनिष्टों को नष्ट कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर सूचिका (सुई) के समान छोटे से छोटे गुण के भी ग्रहण कर सकते हैं।उनकी गुणग्राहकता सर्ववंदनीय है।  बुद्धिमान सूक्ष्मदर्शी होते हैं, उनकी शक्ति सदा निर्बलों की 


सहायक और आक्रांताओं की विनाशक है। गजानन के सूक्ष्म नेत्र त्रिकालदर्शी हैं। उनमें अंतर्मन में झांकने की क्षमता है। जैसे सूर्य की किरणों के समक्ष कोई अंधेरा टिक नहीं पाता,उसी प्रकार हमारे मन के दूषित विकार , उनकी सूक्ष्मभेदिनी अंतर्दृष्टि के समक्ष तिरोहित हो जाते हैं। उनकी स्नेहिल दृष्टि सज्जनों को अभयदान देती है और दुर्जनों  को उनके छल -कपट से मुक्त करती है।

            गणपति लंबकर्ण हैं।सबकी सुनते है

श्रव्य अश्रव्य का विचार कर तदनुसार आचरण करते हैं।सूप के समान साथ-साथ को गृहण कर,थोथा यानि अंसार को त्याग देते हैं। उनका एक दंत अद्वैतवाद को दर्शाता है। वे अहं के जनक द्वैत से परे हैं, क्योंकि यह‌ अहम ही अहंकार का पोषण करता है और संसार के दुःख का कारण बनता है। उसमें विविध प्रकार के वैषम्य लाता है।विवाद और युद्ध में परिणत होता है।आत्मरूप से मिलने में बाधक होता है। अद्वैत का भाव बंधुत्व और एकता का संदेश देता हैं।एकदंत त्याग का संदेश देता है। बिना त्याग के कल्याण संभव नहीं।


गणपति की चार भुजाएं अपार शक्ति से भरी हैं। उनकी गति चारों दिशाओं में है।उनके हाथों में सुशोभित  वस्तुएं भी विविध भाव प्रकट करती हैं।उनके एक हाथ में कमलपुष्प है।कमल संस्कार, कोमलता, पावनता का प्रतीक है।उनके दूसरे हाथ में परशु या कुठार है,जो हमारे समस्त संशयों,कुकर्म और विषय वासनाओं केँ बंधनों को जड़ मूल से काटने में सक्षम है। उनका परशु सभी  भौतिक लालसाओं पर कुठाराघात कर हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करता है।बप्पा के एक हाथ में मोदक है,जो हमारे सत्कार्यों का मधुर फल है। संयमित बुद्धि से किया गया कार्य सदा सुखद होता है। गणपति का चौथा हसरत, अभयदान की मुद्रा में उठा वरद हस्त है।यह सभी को मंगल आशीर्वाद देता है।उनके चरणों में मिष्ठान का एक पात्र है, जो हमारी चंचल और लालची इंद्रियों  के,प्रभु चरणों में समर्पित होने का भाव दिखाता है। उनका लंबोदर सर्वग्राही है।समस्त अच्छाइयों और बुराइयों को उदरस्थ कर,निरंतर विकास की ओर बढ़ना ही तो सम्यक प्रगति है।

          मूषक गणपति का वाहन है।यह समसत जीवों में सबसे उपर चंचल है।इस पर सवारी करना अर्थात् अपनी बेकाबू इंद्रियों पर नियंत्रण पाना है।यह मात्र गणपति की कृपा से संभव है। 

उनका एक चरण धरती और एक पद्मासन की मुद्रा में है। विवेकवान धरती पर रहते हुए भी उससे ऊपर होता है । यथार्थ से जुड़ा होकर भी आदर्श की ओर उन्मुख होता है ।' तेन त्यक्तेन भुंजीथा:' यानि त्यागपूर्ण भोग ही उसका लक्ष्य है।वह कमलपत्र के समान जीवन सरोवर में 

विलंबित होता है, लेकिन भोग रूपी जल की एक बूंद भी अपने पर टिकने नहीं देता।त्यागपूर्ण भोग का यही संदेश गणपति की यह मुद्रा हमें देती है।

       इस प्रकार गणपति दिव्याभ हैं। उनकी आभा जगत के कम कम में व्याप्त है।हम भी उनकी इस दीप्ति से आप्लावित हों,इसी भाव को लेकर हम उनकी आराधना करते हैं,उनको नमन करते हैं और करते हैं उनका मंगल आवाहन-

गणपति बप्पा मोरया।


वीणा गुप्त

 नई दिल्ली

गणपति , देवगणों में प्रथम पूजनीय। शक्ति स्वरूपा मां पार्वती का सृजन। शिव पुत्र।शक्ति और शिव का संतुलन ही बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। सदमार्ग पर  प्रेरित बुद्धि ही समस्त मंगलकार्यों  का विरोध करती है।इसी विवेक बुद्धि की याचना करते हैं हम मंगल मूर्ति गणपति से। जब विवेक हमारे कार्य का नियामक होता है तभी निर्विध्न लक्ष्य प्राप्ति  होती है और इसी अभीष्ट सिद्धि के लिए हम सर्वप्रथम वंदना करते हैं वरद हस्त गणपति की।

          गणपति बुद्धि निधान हैं।पुराकाल में देवों में प्रथम पूजनीय कौन?जब यह प्रश्र उठा , तो उन्होंने अपने बुद्धि बल के सहारे यह पदवी सहज ही प्राप्त कर ली। अन्य देवगण  जहां पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए अपने अपने वाहन पर आरूढ़ हुए, वहां गणपति ने अपने माता-पिता की परिक्रमा मात्र से ही यह कार्य  सहज संपन्न कर लिया। सच ही तो है माता-पिता ही तो सम्पूर्ण सृष्टि हैं,उनकी परिक्रमा कर ली तो धरती पर कुछ भी अगम्य नहीं रह जाता।

          उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनके पावन मनोहर रूप का दर्शन करने पर यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाती है। उनका विशाल सिर उनकी व्यापक बुद्धि का परिचायक है। नीर-क्षीर विवेक वाली उनकी बुद्धि का परिचय हमें उस समय मिल जाता है जब महर्षि वेदव्यास अपने विराट महाकाव्य महाभारत की रचना करने वाले थे । महर्षि के मन में बहुत तीव्रता से भाव- उच्छलन हो रहा था,ऐसी स्थिति में उनको लिपिबद्ध कर पाना असम्भव था। इसके लिए उन्हें एक दक्ष लिपिक की आवश्यकता थी। ऐसे समय में गणपति जी ने उनकी समस्या का निदान किया,और इस जटिल कार्य को सहर्ष करना स्वीकार किया। गणपति की लेखन 

गति बहुत तीव्र थी, उन्होंने महर्षि के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि उनका लेखन कार्य निर्बाध चलना चाहिए। यदि उनकी लेखनी क्षणांश को भी रूकी तो वे यह कार्य बीच में ही छोड़कर चले जाएंगे। गणपति का प्रस्ताव इतना सरल नहीं था।  उद्दामगति से उठते भावों को छंदबद्ध करने और काव्य रूप देने में व्यास जी को कुछ समय तो लगना ही था। वे दुविधा में पड़ गए, लेकिन शीघ्र ही एक सुंदर समाधान भी सहज रूप में उनके मन में आ गया। उन्होंने गणपति के प्रस्ताव को सशर्त स्वीकार किया।

जिसके अनुसार यह सुनिश्चित किया गया कि ऋषि जो भी काव्य रचना करेंगे, गणपति  उसका भाव आत्मसात करने के बाद ही उसे लिपिबद्ध करेंगे। गणेश जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और इस प्रकार विश्व के सबसे बडे़ महाकाव्य की रचना संपन्न हुई। धन्य हैं ऐसे कवि और ऐसे लिपिकार।

           गणपति का प्रशस्त भाल, उनकी संकीर्णता रहित बुद्धि की व्यापकता का प्रतीक है।उनकी विशाल गज सूंड उनके अपार शक्ति सामर्थ्य की द्योतक है। वे अपनी इस कर से जहां एक ओर वृक्ष के समान बड़े-बड़े अनिष्टों को नष्ट कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर सूचिका (सुई) के समान छोटे से छोटे गुण के भी ग्रहण कर सकते हैं।उनकी गुणग्राहकता सर्ववंदनीय है।  बुद्धिमान सूक्ष्मदर्शी होते हैं, उनकी शक्ति सदा निर्बलों की 


सहायक और आक्रांताओं की विनाशक है। गजानन के सूक्ष्म नेत्र त्रिकालदर्शी हैं। उनमें अंतर्मन में झांकने की क्षमता है। जैसे सूर्य की किरणों के समक्ष कोई अंधेरा टिक नहीं पाता,उसी प्रकार हमारे मन के दूषित विकार , उनकी सूक्ष्मभेदिनी अंतर्दृष्टि के समक्ष तिरोहित हो जाते हैं। उनकी स्नेहिल दृष्टि सज्जनों को अभयदान देती है और दुर्जनों  को उनके छल -कपट से मुक्त करती है।

            गणपति लंबकर्ण हैं।सबकी सुनते है

श्रव्य अश्रव्य का विचार कर तदनुसार आचरण करते हैं।सूप के समान साथ-साथ को गृहण कर,थोथा यानि अंसार को त्याग देते हैं। उनका एक दंत अद्वैतवाद को दर्शाता है। वे अहं के जनक द्वैत से परे हैं, क्योंकि यह‌ अहम ही अहंकार का पोषण करता है और संसार के दुःख का कारण बनता है। उसमें विविध प्रकार के वैषम्य लाता है।विवाद और युद्ध में परिणत होता है।आत्मरूप से मिलने में बाधक होता है। अद्वैत का भाव बंधुत्व और एकता का संदेश देता हैं।एकदंत त्याग का संदेश देता है। बिना त्याग के कल्याण संभव नहीं।


गणपति की चार भुजाएं अपार शक्ति से भरी हैं। उनकी गति चारों दिशाओं में है।उनके हाथों में सुशोभित  वस्तुएं भी विविध भाव प्रकट करती हैं।उनके एक हाथ में कमलपुष्प है।कमल संस्कार, कोमलता, पावनता का प्रतीक है।उनके दूसरे हाथ में परशु या कुठार है,जो हमारे समस्त संशयों,कुकर्म और विषय वासनाओं केँ बंधनों को जड़ मूल से काटने में सक्षम है। उनका परशु सभी  भौतिक लालसाओं पर कुठाराघात कर हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करता है।बप्पा के एक हाथ में मोदक है,जो हमारे सत्कार्यों का मधुर फल है। संयमित बुद्धि से किया गया कार्य सदा सुखद होता है। गणपति का चौथा हसरत, अभयदान की मुद्रा में उठा वरद हस्त है।यह सभी को मंगल आशीर्वाद देता है।उनके चरणों में मिष्ठान का एक पात्र है, जो हमारी चंचल और लालची इंद्रियों  के,प्रभु चरणों में समर्पित होने का भाव दिखाता है। उनका लंबोदर सर्वग्राही है।समस्त अच्छाइयों और बुराइयों को उदरस्थ कर,निरंतर विकास की ओर बढ़ना ही तो सम्यक प्रगति है।

          मूषक गणपति का वाहन है।यह समसत जीवों में सबसे उपर चंचल है।इस पर सवारी करना अर्थात् अपनी बेकाबू इंद्रियों पर नियंत्रण पाना है।यह मात्र गणपति की कृपा से संभव है। 

उनका एक चरण धरती और एक पद्मासन की मुद्रा में है। विवेकवान धरती पर रहते हुए भी उससे ऊपर होता है । यथार्थ से जुड़ा होकर भी आदर्श की ओर उन्मुख होता है ।' तेन त्यक्तेन भुंजीथा:' यानि त्यागपूर्ण भोग ही उसका लक्ष्य है।वह कमलपत्र के समान जीवन सरोवर में 

विलंबित होता है, लेकिन भोग रूपी जल की एक बूंद भी अपने पर टिकने नहीं देता।त्यागपूर्ण भोग का यही संदेश गणपति की यह मुद्रा हमें देती है।

       इस प्रकार गणपति दिव्याभ हैं। उनकी आभा जगत के कम कम में व्याप्त है।हम भी उनकी इस दीप्ति से आप्लावित हों,इसी भाव को लेकर हम उनकी आराधना करते हैं,उनको नमन करते हैं और करते हैं उनका मंगल आवाहन-

गणपति बप्पा मोरया।


वीणा गुप्त

 नई दिल्ली

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