जेहि चितवत इक बार

( ललित निबंध) 

वीणा गुप्त 

     चितवन--आँखों की भाषा।ऐसी भाषा, जो निशब्द होते हुए भी शब्दों सेअधिकअभिव्यक्ति-क्षम है।सृष्टि के प्रारंभ से ही चितवन अपनी शक्ति का परिचय देती आई है।आज तो खै़र स्वच्छंद प्रेम और उन्मुक्त सौंदर्य का युग है , लेकिन उस युग में भी जब प्रेम पर बंधन था,तब भी चितवन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। कालिदास की मृगनयनी शकुंतला हो,या तुलसी की मर्यादाआबद्धसीता,या सूरदास की  विशालनयनी राधा,सभी की चितवन उनके प्रिय को रिझा लेने को पर्याप्त थी।कबीर की विरहिन ने तोअपने आराध्य को ही अपनी चितवन से रिझा लिया था:-


नैननि की करि कोठरी,

पुतरी पलंग बिछाय।

पलकनि की चिक डारि कै,

पिय को लिया रिझाय।


चितवन का सबसे ज्यादा फायदा उठाया रीतिकालीन कवियों ने।उनके नायक-नायिका तो भरे 'भौन' में 'चितौन' के माध्यम से ही

बतकही कर लेते थे:-


कहत नटत रीझत खिझत,

मिलत खिलत लजियात।

भरे भौन में करत हैं,

नैननि ही सौं बात।


नयनों की यह भाषा इतनी प्रभावी थी कि छोटे-मोटे छैलाओं की तो बात ही क्या,बड़े-बड़े सूरमाओं के छक्के छूट जाते थे:-


कहा लडैते दृग किए,

परै लाल बेहाल।

कहुँ मुरली ,कहुँ पीतपट,

कहुँ मुकुट बनमाल।


कविवर रहीम ने भी चितवन की महिमा को पूरी ईमानदारी से स्वीकार किया और उस पर अपनी मोहर लगाई:-


जो रहीम जग मारियो,

नैन बान की चोट।

भगत भगत कोई बच गए

चरण-कमल की ओट।


लाख बचने की चेष्टा करो,बच नहीं पाओगे।वैसे नयनबान की यह चोट है बहुत मधुर,जो बिना टिकट त्रिलोक की परिक्रमा करवा  देती है।अनेक सजीले संसार दृष्टि के समक्ष उपस्थित कर देती है।मारकर जिलाती है,तो जिलाकर मारती है।मन में मीठी सी टीस जगा देने वाली यह चोट  प्रेमी-युगलों के लिए सदा काम्य रही है:-


अमिय हलाहल मद भरे,

श्वेत श्याम रतनार।

जियत मरत ,झुकि-झुकि परत,

जेहि चितवत इक बार।


एक ज़माना था जब चितवन झूठ नहीं बोलती थी।मुखकही की अपेक्षा आँखों की भाषा अधिक विश्वसनीय मानी जाती थी।विद्वान  इसी पर भरोसा रखने की सलाह देते थे:-


झूठे जानि न संग्रह,

मन मुँह निकसै बैन।

याहि ते मानौ किए,

बातन को विधि नैन।


लेकिन अब ऐसा नहीं।अब तो नेत्रों ने भी झूठ का अभिनय करना सीख लिया है। मुँह बड़े-बड़े वायदे कर रहा है। प्रेम में जीने-मरने की कसमें खाई जा रही है।बेचारे चाँद-तारों का अस्तित्व दाँव पर लगा है कि न जाने कब कोई सिरफिरा मजनू उन्हें तोड़कर अपनी प्रियतमा के केशों में सजा दे,और नेत्र भी इसकी जोर-शोर से पुष्टि कर रहे हैं।कितना सही झूठ बोलना सीख गई है चितवन।और क्यों न हो ऐसा? ज़माना ही अवमूल्यन का है।ज़माने के साथ चलना ज़रूरी है  फिर चितवन का परहेज बेमानी है।

      

        आज अनन्यता का पूर्ण अभाव है। निष्ठाएँ बार-बार टूटती हैं।क्यों? क्या हमारी सौंदर्य निरीक्षक वृति इतनी सूक्ष्म हो गई है कि अतृप्ति ही उसकी आदत बन गई है।


ज्यों ज्यों निहारिए नेैरे ह्वै नैननि,

त्यों-त्यों खरी निकरैसी निकाई।


वाली स्थिति तो अब कदापि नहीं।

अगर ऐसा होता तो होती एकनिष्ठता।होती अनन्यता।

चितवन तब वंचना न करती,

बल्कि धन्य हो जाती।

किसी अन्य को निहारने की इच्छा ही नहीं रहती।होती प्रेम की आदर्श स्थिति:-


लोचन मग रामहि उर आनी,

दिए पलक कपाट सयानी।

       

आज तो नेत्र भटक रहे हैं,चितवन में चंचलता तो है लेकिन मन की निर्मलता नहीं।छिछोरापन आ गया है आज चितवन में।वह सौंदर्य नहीं,कुरूपता की उपासिका हो गई है।

हर ओर वासना, नग्नता

और अश्लीलता की तलाश हो रही है।नजरिया बदल गया है ।नज़र अपनी ही नज़र से गिर गई है।कुत्सित वासनाओं की पूर्ति होते ही चितवन भ्रकुटि तान लेती है।विचित्र सा अजनबीपन उभर आता है चितवन में।पल भर पहले के आतुर और लालायित नेत्र नई खोज में लग जाते हैं।  चितवन का यह भाव परिवर्तन नैतिक मूल्यों के ह्रास से जुड़ा है।

सांत्वना, स्नेह दुलार,

आत्मीयता बरसाने वाली चितवन आज विरल हो गई है।प्रतिकार,हिंसा,रोष,तिरस्कार,स्वार्थ भरी आँखें हर जगह दिखाई देती हैं।

    नेत्रों की इस भाषा को बदलना ही होगा।निराशा को आशा,पीड़ा को हर्ष में बदलना होगा।भौतिक चकाचौंध से चौंधियाए नेत्रों को पारखी दृष्टि देनी होगी।लाना होगा उन्हें शीतल ,

कोमल ,प्रकाश से आवेष्टित धरातल पर।जहाँ भटकाव न हो।हो केवल संतुष्टि,पूर्णता और समर्पण।चितवन के मार्गदर्शन का यह गुरूभार साहित्यकार के कंधों पर है।साहित्य अपने दायित्व से विमुख नहीं होगा,यह मेरा विश्वास है।

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वीणा गुप्त 

नई दिल्ली

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