पनघट

  

हरप्रीत कौर

समय का पहिया घूमता जाए रे

सबके घर में नल लग गए

अब कोई पनघट न आए रे

पनघट पड़ा है सूना।


सन्नाटा सा पसरा रे,

न किसी के पायल की छन छन

न किसी की भीगी चुनर,

न कोई पनघट पे शर्माए रे।

बचपन से जवानी यारों संग बिताई रे

वो बचपन की यादें लौट फिर आई रे

बचपन वाला प्यार हमें पनघट पे मिल जाता था।

आंखों ही आंखों में चैन हमारा लुट जाता था।

उसके आने से पहले हम रस्ते पर आ जाते थे।

वो सखियों संग,हम यारों के संग छुप छुप के देखा करते थे।

वो धीरे धीरे छम छम करती चलती

और हम भी छोटे छोटे पग धरते पनघट पर आ जाते थे।

जिस पनघट को भूल गया,वो पनघट बहुत अनूठा था।

खट्टी मीठी यादों का वो पनघट बहुत अलबेला था।


हरप्रीत कौर

शाहदरा, दिल्ली

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