सिसकियों का दौर

 स्नेहलता पाण्डेय"स्नेहिल"

तप्त हृदय है व्यथित धरा,

मौन रहकर सबकुछ सहती।

छाती पर उसके मूंग दला,

अंतरात्मा है सिसकती।


दोहन कर लिया उसका,

हो वशीभूत स्वार्थ के।

छीन लिया सौंदर्य प्रकृति का,

अंगों को उसके काट के।


प्रकृति भी है सिसक रही,

अलंकरण अपने खोकर,

कोयल काली कूक रही पर,

 गाती है कुछ मद्धम स्वर।


वायुमण्डल भी सिसकता,

अनहोनी ये कैसी हो रही।

वायु जो है जीवनदायिनी,

प्रदूषण कितना फैला रही।


आज सिसक रही है नारी,

सवाल है उसके अस्तित्व का

है युगों से दबाई,सताई गई,

अंत नहीं उसकी वेदनाओं का।


मानवता भी सिसक रही है।

देखकर हाल आज के दौर का।

स्वार्थलोलुप मानव करता।

सौदा अपने ही ज़मीर का।


गरीब आज सिसक रहा,

आर्थिक तंगी की लाचारी से।

उम्मीदें सारी ध्वस्त हुईं।

कैसे जूझे इस महामारी से।


सब खड़े है दुखी ,स्तब्ध से,

समय का विराट रूप देखकर।

उर अंतर में हाहाकार मचा।

सिसकी रहे प्रिय को खोकर।


स्नेहलता पाण्डेय"स्नेहिल"

नई दिल्ली

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