ग़ज़ल

  


इंदु मिश्रा'किरण

मुझको कभी भी उनसे मुहब्बत न हो सकी,

 जिनकी हमारी जैसी ही फ़ितरत न हो सकी।


जाने वो कैसे खुश हैं बसाकर नया जहां,

मुझसे अलग ये मेरी मुहब्बत न हो सकी।


जिनके लिए किए हैं दुआएँ यूँ रात दिन,

उनको मेरे ही वास्ते मुहलत न हो सकी।


नफ़रत दिलों में भरके मज़ा ले रहे हैं वो,

मुझसे कभी भी ऐसी तो हरकत न हो सकी।


रचते हैं रोज़ साज़िशें मेरे खिलाफ़ जो,

उनसे भी मुझको कोई शिक़ायत न हो सकी।


तैनात थे जो सबकी हिफाज़त के वास्ते,

उनसे तो बेटियों की हिफाज़त न हो सकी।


आँखों में आँसुओं को छुपा लो भी अब 'किरण'

बढ़कर ख़ुदा से कोई अदालत न हो सकी।


इंदु मिश्रा'किरण'

नई दिल्ली

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