"जीवन अर्पित तुम्हें मुरारी"

किरण मिश्रा 'स्वयंसिद्धा 

सरल सहज बाकी चितवन थी,

प्रेम नगर में ही घर था,

गलिन-गलिन में प्रेम गीत थे,

आँगन-आँगन मन्दिर था!


आँखों रिसती पीड़ा थी,

होंठ खुले पर सिले हुये,

कानों में बंशी की धुन थी,

अहसास साँस में घुले हुये!


तन व्याकुल हिरणी सा,

मन बाग कुलाचें लगा रहा,

तेरे आवन की राह तके,

दिल सूखा सावन तरस रहा।


वो मन भावन रूप सुहावन,

तुझसे प्रीत लगा हारी,

दिल चैन गया,मन प्रीत जगी,

लौ, रूह जली तन सुकुमारी!


मन वीणा के तार कसे,

चरणन में तेरे बलिहारी,

जोगन जैसा रूप धरा,

दर्शन को तेरे गिरिधारी।


कुछ दया करो सन्ताप हरो,

प्यासी चकवी सी पुकार रही,

दो बूँद नेह के बरसाओ,

सुनो अंग लगाओ बनवारी।


इन नैनन में भर दो ज्योति,

मन मन्दिर प्रीति की फुलवारी।

तेरे रूप गहे मेरे नयना,

जाऊँ मैं तन मन धन वारी।


मेरी रूह बसाओ घर अपना,

सुनो राधा के वो श्याम बिहारी।

कान्हा कान्हा..रटते रटते,

करूँ जीवन अर्पित तुम्हें मुरारी।।


"ये जीवन अर्पित तुम्हें मुरारी"


किरण मिश्रा 'स्वयंसिद्धा '

नोयडा

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