जब खुद से बात करता हूँ

सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'

कभी-कभी जब खुद से बात करता हूँ, 

ढूंढता हूँ क्या खोया क्या पाया जीवन में।



सार मानव जीवन का समझा नहीं। 

जीवन उलझा रहा सदा खोने-पाने में।। 


मिट्टी के तन में भाव उज्जवल मिले, 

अंतरात्मा में सद्विचार सद्भाव खिले। 

मैं ही ना गुन पाया, ना सुन पाया,

मानव होकर मानव न बन पाया।। 


पानी की तरह सरस बहाव सा मिला, 

गंगा जैसा पवित्र मन पुष्प सा खिला। 

मेरा चंचल मन लोभ-मोह से ग्रसित रहा, 

जीवन मेरा खारा समुन्दर बनकर रहा।। 


सुधाकर सा शीतलवान हृदय मिला, 

दिवाकर सा उर्जावान मस्तिष्क मिला। 

ईश्वर ने मानुष जन्म हीरे समान दिया, 

मैंने जीवन कंकड़-पत्थर समान जिया।। 


पद, प्रतिष्ठा, धन, की चाह में खोया रहा, 

अहंकारी मन जाग्रतावस्था में सोया रहा। 

अंतर्द्वंद के सागर में ज्ञान की बूंदे मिलीं। 

क्या खोया क्या पाया कि गुत्थी खुली।। 


आत्मचिंतन ने मन में सद्भाव जगाया, 

आत्ममंथन ने मन को सद्मार्ग दिखाया। 

मन समझा तब, क्या खोया क्या पाया, 

भौतिकता में डूबकर जीवन व्यर्थ गंवाया।। 


उत्कृष्ट साधन सभी मिले कर्म साधना से, 

सुन्दर द्वार मन के सभी खुले सद्भावना से। 

दुष्प्रवृत्तियों की बेड़ियाँ क्षीण पायीं मन में, 

स्वयं पर विजय पायी संकल्प कामना से।। 


**सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'

११६, राजपुर मार्ग, 

देहरादून - उत्तराखण्ड।

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