वीणा गुप्त
जीवन का रंगमंच सजा है।जीव रूपी नर्तक नृत्य करने को प्रस्तुत है। उसके पैरों में मोहरूपी नूपुर बंधे हैं। निंदा का रसाल शब्द उसके मन-प्राणों में आनंद का संचार कर रहा है। सभागार में उपस्थित अन्य जन दर्शक हैं।भ्रम भरा मन तालियां बजा रहा है।हर व्यक्ति यह दोहरी भूमिका निभा रहा है।नर्तन चल रहा है।चिरकाल से निरंतर। कभी न समाप्त होने वाला नर्तन है यह।अनवरत नर्तन यानि लगातार भटकाव।भटक रहा है मनुष्य, अपनी तृष्णा, लालसा, इच्छाओं की पूर्ति हेतु। ऐसी इच्छाएं,जो अनंत हैं। ये इच्छाएं सागर लहरों की भांति मन सागर में उठतीं हैं। कुछ लक्ष्य तक पहुंचने से पहले ही,फेन उगलती अस्तित्व शेष हो जाएंगी, कुछ तट से टकराएंगी, लेकिन यह तट भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं है। क्योंकि यहां भी बिखराव है, समग्रता नहीं। बिखराव ,अभाव, अवसाद और थकान का प्रतीक है। लक्ष्यहीन दिशा में चर्चाओं के वशीभूत होकर नर्तन करता जीव, इससे मुक्ति पा भी कैसे सकता है। इसके लिए उसे सजग सचेत होना पड़ेगा। जानना होगा जीवन का महत लक्ष्य,जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति नहीं है।आहार, मैथुन, निद्रा ईश्वर के अंश मनुष्य के जीवन का लक्ष्य हो भी नहीं सकता।होना भी नहीं चाहिए।
लेकिन भौतिक संसार में रहकर भौतिकता का त्याग कैसे संभव होगा? संसार में मनुष्य अनेक संबंधों से जुड़ जाता है। आत्मीयता से भरे ये संबंध बहुत आकर्षक हैं। व्यक्ति इनसे बहुत कुछ लेता है तो देना भी बनता है। देना अर्थात् कर्त्तव्यपालन। किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना और उससे उऋण होना कदापि अनुचित नहीं है।अब मनुष्य क्या करे,उस परमात्मा से लौ लगाए या इन्हीं संबंधों के निर्वहण में लग जाए? इसी संदर्भ में एक कथा स्मरण हो आती है,रत्नाकर की।रत्नाकर,जो एक निर्दय बटमार थे। पथिकों को लूटना और उनकी निर्मम हत्या कर देना, उनकी आजीविका थी। ऐसा करके ही वह अपने आश्रितों का भरण- पोषण करता था।एक बार महर्षि नारद उसके चंगुल में फंस गए।नारद थे मस्तमौला। भौतिक संपत्ति के नाम पर केवल एक वीणा थी उनके पास,जो हरि इच्छा मान , उन्होंने रत्नाकर के सुपुर्द कर दीऔर बोले," वत्स,अब तू ही करना इस पर हरिकीर्तन।" रत्नाकर ने ऐसा निर्भीक व्यक्ति तो पहली ही बार देखा था। बोला,"साधु महाराज, इसे अपने ही पास रखो। मालमत्ता निकालो नहीं तो अपने प्राण संकट में जानो।" "मेरा तो सब कुछ यही है, और प्राणों का क्या, ये भी उसने दिए हैं,जब चाहे ले ले।"नारद भाव -विमुग्ध स्वर में बोले।
और फिर नारद से पूछा,"वत्स, किसलिए करता है यह कुकर्म?कितना भार लाद रहा है खुद पर।
कैसे भुगतेगा यह सब?" "यह मेरी आजीविका है। इससे मेरे परिवार का भरण पोषण होता है,मैं इसे नहीं छोड़ सकता।" रत्नाकर ने कहा।" गृहस्थी का पालन तो ठीक है,पर इसके लिए जो पाप अर्जन कर रहा है, उसका भुगतान कौन करेगा?" "मेरे परिजन, पुत्र,पत्नी,भाई सब , और कौन?"रत्नाकर बोला। नारद उसकी अज्ञता पर मुस्करा दिए। " जाकर पूछो तो सही, अपने परिजनों से ,क्या वे तुम्हारे कुकर्मों का बोझ उठाने को तैयार हैं?"और जब रत्नाकर को इसका उत्तर मिला तो उसके ज्ञान- चक्षु खुल गए।
मन में अपार उथल-पुथल लिए नारद के पास आया। " उत्तर मिला वत्स?" नारद ने पूछा।
"जी भगवन! मेरा कोई संबंधी मेरे पापकर्म में भागी नहीं बनना चाहता। जिसका कर्म उसी का फल।" उसने ग्लानि भरे स्वर में कहा।और यही आत्मबोध रत्नाकर को बाल्मीकि बना गया।
जब जागो, तभी सवेरा।
स्पष्ट है कि संसार लिप्त व्यक्ति को यह समझना होगा कि कर्तव्य निर्वहण के नाम पर वह कुछ भी अनुचित न करे।उचित मार्ग का अनुसरण ही कर्तव्य पालन का सही प्रकार है।और सही मार्ग ईश्वर प्राप्ति की दिशा में उठाया गया एक कदम है। ईश्वर भक्ति की पहली शर्त ही कर्म और समर्पण है। सेवा भाव ही सच्चा धर्म है।इस वास्तविकता का ज्ञान होगा तो यह भटकाव भरा
नर्तन रूक जाएगा। इच्छाओं पर संयम और विवेक का अंकुश लग जाएगा । मन
उलझाव से निकल समाधान की ओर बढ़ेगा। मन और प्राण आनंद के अतिरेक में मग्न हो पुकार उठेंगे।
अब हौं नाच्यौ बहुत गोपाल।
लेकिन अब यह नर्तन होगा उचित दिशा की ओर। और यह पुकार संतुष्ट मन की कृतज्ञ पुकार बन जाएगी
वीणा गुप्त
नई दिल्ली