शाम ये ढ़लने लगी
शाम ये ढ़लने लगी
मन चाहता विश्राम
देख कर मंजर जगत का
गुँजती है सिसकियां
हो गया दूभर अब जीना
मचा हाहाकार है
शाम ये ढ़लने............।
छाये है कैसें ये नभ में
रोग के बादल घनेरे
घुल गया मानों हवा में
ऱोग का दूषित गरल
त्राहि त्राहि मची जग में
हर तरफ कुहराम है
शाम ये ढ़लने..........।
गरीबी मजबूर है
बेबसी लाचार है
अभावों से छूटता
अपनों का संग साथ है
तोड़ती दम जिन्दगी
कतरा कतरा मिलती श्वास है
शाम ये ढ़लने...............।
अब नहीं दिखती उमंगे
मुख कमल मुरझायें है
पसरा सन्नाटा शहर में
विरान पथ विथिकायें है
अब मिटें यह दंश व्याधि
खुशियों का आगाज हो
शाम अब ढ़लने..........।
सिमित हो गयें दायरें
सहमी सहमी है जिन्दगी
गयी बदल रोग भय से
अपनों की मनोवृत्तियाँ
अब नही दिखती कहीं
गर्मजोशी भाव में
शाम अब ढ़लने...........।
चाहता है मन यही
फिर शुरम ई वो शाम हो
चेतना उल्लास पूरित
भोर का उजास हो
हो सुवासित जग का आँगन
मलय पवन सुवास से
शाम ये ढ़लने..............।
छोटी सी ये जिन्दगी
ईश का उपहार है
प्रेम के भूषण से भूषित
प्रकृति का हर साज हो
मेह बरसें नेह के
आह्लादित हर गात हो
शाम ये ढ़लने.........।
मन चहता ..................।
जय माँ गंगा
पतित पावनी गंगा धारा।
जीवनदाती जग आधारा।।
जयति जयति हे गंगा मैया।
पार करो माँ भव से नैया।।
तप भगीरथ किये अपारा।
ब्रह्म दियों तव सुरसरि धारा।।
तीव्र प्रवाह चली हरषाई।
शिव शंकर की जटा समाई।।
पुनि तप कियें भगीरथ भारी।
शिव प्रसन्न होई सुख मानी।।
उतरी धरा धाम तव गंगा।
संग भगीरथ प्रमुदित अंगा।।
मास वैषाख शुक्ल सप्तमी।
दिवस अवतरण कहतें धर्मी।।
साठ लाख सागर सुत तारा।
पाप विमोचनि हे अघ हारा ।।
हर हर गंगे जो नर कहता।
पाप मोह तम कभी न फँसता।।
सुमिरत नाम होय अघ नाशा।
उपजें हिय में ज्ञान प्रकाशा।।
संस्कार
माँ की छोटी छोटी सींख
सिखलाती संग प्रीत
कर आत्मसात इसे
जीवन सँवारिये।
काया का श्रृंगार रूप
रूप का श्रृंगार गुण
स्ंस्कार सदगुण को
मन में उतारिए।
निधि अनमोल होती
बिन मोल मिलती है
करूणा विनम्रता का
भाव मन धारिए।
आदर बड़ों का करें
प्रेम भाव हिय भरें
बन के मिशाल राह
औरों को दिखाईए।
आँखों के किनारों पर ठहरा एक आँसू
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आँखों के किनारे पर ठहरा एक आँसू
अधीर बहने को सुनाने निज व्यथा मन की
अजब फितरत है इन आँसुओं की
अदभूत माया है विधाता की
छलक आते है सुख दुख दोनों में
आँखो से ये आँसू।
रहते अधर है मौन आँसू कहजाते
जज्बात् सब मन की
बेबसी में जो न मुखरित हो सकी
वो बात सब मन की।
आँखो के किनारे पर ठहरा एक आँसू
हो व्याकुल सुनाना चहता अन्तः व्यथा मन की।
नस नस में व्याप्त दुख पीड़ा की
बन अनूभूति तरल दरिया
कपोलों पर है आतुर करने को
मानों अठखेलियाँ
आँखों के किनारे पर ठहरा एक आँसू
दिखाने आईना मन का बहने को है आतुर।
कभी लाचार हो बेबस छिपाये
दर्द मन का सब
पलक पुट में समाया मानों ओढ़ के
धैर्य का वसन
आँखों के किनारें पर ठहरा एक आँसू
मानों ढुँढ़ता हो जग मेंअपना दर्द बाँटने को।
छोड़ के लाज मर्यादा तोड़कर बन्धन सारे
कभी भय से डरकर कभी सुख में रमकर
कभी अपनी कभी अपनों की दांस्ता
बंया करते है ये आँसू
आँखों के किनारे पर ठहरा एक आँसू
अधीर बहने को सुनाने निज व्यथा मन की।
मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर