में वृक्ष
पत्र विहीन
होकर भी
एक उम्मीद में
जीता है ,
फिर लौट के
आएगा बसन्त
मेरे आँगन में।
फिर बहार मुस्कुराएगी ,
ठूंठ फिर हरा - भरा होगा
पर ये लोकतंत्र का वृक्ष
कैसे हरा- भरा होगा ???
ये दिनों-दिन सूखता जा रहा है
भ्रष्टाचार का कीड़ा
इसकी जड़ों को खाता ही जा रहा है ।
अब तो बसंत के मौसम में भी
सर्वत्र पतझड़ नजर आ रहा है ।
कौन बचाएगा उसे
पतझड़ होने से ???
आरोप-प्रत्यारोप
के तीर कब तक चलाते रहेंगे??
असल मुद्दों को छोड़ कर
कब तक हमे भरमाते रहेंगे ??
आरोप -प्रत्यारोप के
दाँव-पेंच को छोड़ कर अब
असल मुद्दों पर आ जाइए
मिल बैठ कर समस्याएं सुलझाइए
भारत-वृक्ष को पतझड़ होने से बचाइये।
पतझड़ होने से बचाइए।