पतझड़

निर्मला  जोशी 'निर्मल'

  में वृक्ष

पत्र विहीन

होकर भी

एक उम्मीद में

जीता   है ,

फिर लौट के 

आएगा बसन्त

मेरे  आँगन में।

फिर बहार मुस्कुराएगी ,

ठूंठ  फिर हरा - भरा होगा

   पर ये लोकतंत्र  का वृक्ष 

     कैसे  हरा- भरा होगा   ???

     ये  दिनों-दिन  सूखता जा रहा है

    भ्रष्टाचार का  कीड़ा 

     इसकी जड़ों  को खाता ही  जा  रहा है ।

      अब   तो  बसंत  के मौसम में भी 

       सर्वत्र    पतझड़    नजर आ रहा है ।

          कौन बचाएगा उसे

           पतझड़   होने   से ???

           आरोप-प्रत्यारोप

          के तीर   कब तक  चलाते रहेंगे??

           असल मुद्दों  को  छोड़ कर 

           कब तक  हमे  भरमाते  रहेंगे ??

          आरोप  -प्रत्यारोप के 

          दाँव-पेंच  को छोड़ कर अब

           असल मुद्दों पर  आ जाइए

            मिल बैठ कर  समस्याएं सुलझाइए

         भारत-वृक्ष को पतझड़ होने से  बचाइये।

                           पतझड़ होने से बचाइए। 


         

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