सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
कर्म इन्सान का हो बस इन्सानियत पाने के लिए,
बनाया खुदा ने उसको दिलों में बस जाने के लिए।
बेबसी पर किसी की कभी तरस आया नहीं जिनको,
बेबस हुए वे एक वक्त में गिड़गिड़ाने के लिए।
ठोकरों में अपनी जो रखते थे जमाने को,
मजबूर हुए वे जमाने में लड़खड़ाने के लिए।
गुलाम समझा जिसने दुनिया की हर शै को,
विवश हुए वे दुनिया में हाथ फैलाने के लिए।
समझते थे खुद को जो फरिश्ता नैतिकता का 'तरंग',
मुॅह छिपाये गये वे दागदार दामन छिपाने के लिए।
**सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
११६, राजपुर मार्ग,
देहरादून ।
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