सिक्के की व्यथा

ललित निबंध

मुकेश गौतम 

मैं सिक्का हूँ,हर किसी की जेब व दूकान के गल्ले से दूर इधर-उधर जा फिका हूँ और हर जगह प्रचलन से बाहर हो चुका हूँ।आज के दौर से बहुत डर रहा हूँ और अतीत को याद करके रो रहा हूँ,जब मेरी पीढ़ी में दस पैसे और बीस पैसे का भी कितना लाड़ हुआ करता था।

चवन्नी की तो लोग दुहाई दिया करते थे और उसके नाम से ही बडे-बडे  काम आसानी से हो जाया करतें थे।मतलब उस समय चवन्नी से नहीं चवन्नी चलने के नाम से ही काम हो जाया करते थे।मैं उससे कहीं गुना अधिक हूँ फिर भी बिल्कुल दीन हीन और असहाय सा हुआ एक कोने में  पड़ा हूँ।आज मैं लोगों के पैरों में विवश होकर पड़ा हुआ हूँ जबकि मुझमें लक्ष्मी जी वास माना गया हैं।  समझदार लोगों की बात तो दूर छोटे-छोटे बच्चें तक मेरी तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं।जबकि बच्चें चार आने आठ आने के लिए दिन भर दादा जी के पैर दबाया करते थे।

कही बार मैं कमरे के पर्श,आँगन या रास्ते में पड़ा रहता हूँ,तो वही लोग मुझे नज़र अंदाज़ करके निकल जाते हैं जो पहलें मेरे होने के भ्रम मात्र  से रास्ते में साइकिल को रोककर किसी चमकती हुई मेरे आकार वाली वस्तु को सिक्का समझकर उठा लिया करतें थे।पर उन्हीं के बीच में ऐसी दुर्दशा से मैं बहुत चिंतित और परेशान हो चुका हूँ।

              मुझ से कहाँ गलती हो गयी है मेरे फायदे भी तो देखों,ना तो मैं  जेब में फटता हूँ और न ही  बरसात मेरा कुछ बिगाड़ सकतीं हैं।कोई मुझे जेब से निकाल भी नहीं सकता।जब भी किसी कारण जेब से बाहर निकल जाऊँ तो पूरी तरहां आवाज करता हूँ ताकि आपको पता चल सके। मैं नोटों की तरहां घमंडी और अंहकारी भी नहीं हूँ जो किसी को अभिमानी बना सके।मैं सदा बिलकुल पाक साफ़ रहा हूँ इस कारण ही तो मुझे 'खोटे सिक्के' की उपाधि दी गयी है क्योंकि मैं आदमी का बुरे वक्त में साथ देने वाला हूँ। आज दिन तक किसी ने 'खोटे नोट' नहीं बोला होगा।

                                      हर धार्मिक कार्यो में भी सदा नोटो के ऊपर ग्यारह,इक्कीस,इक्यावन,एक सौ एक में मेरा विशेष योगदान रहा है।

मेरा आज भी जीत-हार में विशेष योगदान होता है किसी भी खेल के प्रारम्भ में जब दो प्रतियोगी टीमों के मध्य मुकाबला होता है तो टाॅस करते समय सिक्का ही उछाला जाता है कभी भी कागज़ के नोटों से टाॅस करते नहीं देखा गया।

लेकिन आज समय की रफ्तार ने मुझे बोना बना कर रख दिया है।एक समय था जब बच्चें मुझे रोज एक-एक करके गुल्लक में डालते थे और अपने आप को किसी भी कीमत में कम नहीं आकते थे।कभी-कभी घर में कड़की आ जाने पर गुल्लक को फोड़ कर मुझे निकाला जाता था अर्थात विषम परिस्थितियों में भी मैंने सबका सदा साथ दिया है।

सबसे बुरा सलूक तो मेरे साथ जब किया जाता है जब आप चुनावी रैलियों में किसी भी पार्टी के नेताओं को सिक्कों से तोलते हो।हमें नेताओं से कभी प्रेम नहीं हुआ है पर उनको हमसे बेहद प्यार है,मतलब उनका हमसे एक तरफा प्रेम हैं।

          मुझे सर्वाधिक दुःख तो जब हुआ जब एकाएक से मेरी बिरादरी के सबसे बड़े सदस्य मेरे दादा और परदादा (पाँच सौ और हजार के नोट) को तत्काल प्रभाव से पदच्युत कर दिया गया। उनके अंतिम संस्कार करने तक का उचित समय भी नहीं दिया गया।फिर भी जैसे तैसे विकट परिस्थितियों में उनका क्रियाकर्म किया गया।आज भी उनमें से बहुत से पूर्वजों की डेडबोडी किसी पुरानी आलमारी के सबसे अन्दर वाले लाॅक में कागज़ के नीचे मिल जाती है तो पैसों को देखकर पहली बार ख़ुशी की जगह दुख होता है। उन अधूरे क्रियाकर्म वाले पूर्वजों के लिए भी मेरी श्रद्धांजलि है।

              वर्तमान में मेंरे बड़े भाई साहब(दस का सिक्का)बहुत समस्या में हैं उनके नाम पर भी मनमर्जी चल रहीं हैं।बाजार में लोग उनके साथ मनमर्जी का सलूक कर रहें हैं मतलब एक जगह प्रचलन में हैं तो एक जगह बंद। जबकि सरकार की तरफ़ से बंद का कहीं कोई आदेश नहीं हैं।

          हर जगह उछलने वाला और चलने वाला सिक्का आज अपनें संक्रांति काल में हैं।सच में आदमीं की इस तेज दौड़ ने अपने अतीत को बहुत कम समय में काफी पीछे छोड़ दिया हैं।

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                    कवि/लेखक

                   -मुकेश गौतम 

               ग्राम,डपटा बूंदी(राज)

                   31:05:2021

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