पिता का कर्तव्य


स्नेहलता पाण्डेय "स्नेहिल"

दीनानाथ जी के सिर में बहुत तेज़ दर्द था। उनका बेटा रमानाथ, आज शाम उनके लिए दवा ले आएगा। उनके सिर में दो दिनों से हल्का दर्द हो रहा था लेकिन वे अपने बेटे की व्यस्तता को देखते हुए दवा के लिए नहीं कह पा रहे थे । आज उनका दर्द बहुत बढ़ गया था अतः उन्होंने अपने बेटे को दवा ले आने के लिए कहा था। ‌

रमानाथ शाम को ऑफिस से घर आया , लेकिन वह उन्हें देखकर वापस दरवाज़े की तरफ मुड़ गया। बेटे का यह व्यवहार  उनके समझ  में नहीं आया। लेकिन थोड़ी देर बाद  वह उनके पास आया तो दीनानाथ ने कहा - "तुम अभी  कहाँ चले गए  थे बेटा"?


रमानाथ  के चहरे पर उदासी के भाव थे। उसने गिलास से पानी निकालकर, अपने पिता को दवाई दिया। दवा खाकर जब उन्होंने अपने बेटे की तरफ़ देखा, उसकी आँखों में आंसू थे।


"बेटा  क्या बात है"?" तुम्हें क्या हुआ"?


"मुझे कुछ नहीं हुआ बाबा " मैं आपका इतना नालायक बेटा हूँ जो आपकी दवाई का ध्यान नहीं रखा सका। मैं आपका ठीक से ख्याल भी नहीं रख पाता हूँ। 


"नहीं बेटा - "तुम्हारे आलावा और कौन मेरी इतनी सेवा करता है। "उमानाथ," तो अपने घर से बाहर ही नौकरी करता है। वह कभी- कभी आ पाता है।तुम  ऐसा क्यों सोचते हो?


"नहीं बाबा आप मेरा मन रखने के लिए कह रहे हैं"। मैं आपकी दवा ल आना कैसे भूल गया आज। आपने आजतक मेरी हर ज़िद को पूरा किया है। बचपन में मैं जब भी किसी चीज़ के लिए ज़िद करता था, आप धूप,बरसात की चिंता किये बिना घर से निकल जाते थे और वो चीज़ लेकर मुझे देते थे।एकबार मैंने ज़ून की दोपहरी में आपसे चाभी वाले मोटर की फ़रमाइश किया था। आप ख़ुशी-ख़ुशी गए और बहुत देर बाद लेकर लौटे थे। मैं खिलौना पाकर इतना ख़ुश हुआ कि आपसे ये भी नहीं पूछा ,आपको इतनी देर कैसे हुई। 


"बाबा आपने एक अनाथ को इतना प्यार दिया जिसका क़र्ज़ मैं सात जन्मों में भी नहीं उतार पाउँगा"।


अब दीनानाथ जी की आँखों में आश्चर्य के भाव थे। उन्होंने अपने बच्चों से इस बात का कभी ज़िक्र नहीं किया था। यहाँ तक कि दोनों बच्चों के नाम भी लगभग एक ही जैसा रखा था ताकि बच्चे के मन में किसी प्रकार का सन्देह 

न  हो।


उनकी आँखों में सालों पुरानी घटना तैरने लगी, जब वे एक बस से अपने ऑफिस जाया करते थे। जहाँ से वह बस पकड़ते थे, उसी बसस्टॉप पर एक भिखारिन अपने तीन ,चार बच्चों को लेकर भीख माँगा करती थी। वह उन बच्चों को अपने बच्चे बताकर, उनकी भूख के नाम पर भीख मांगती थी और बच्चों को भी काम पर लगा  दिया था, जबकि वे बच्चे उसके नहीं थे । एक दिन वे बस स्टॉप पर बैठकर बस का इंतज़ार कर रहे थे कि उनकी नज़र इस मासूम बच्चे पर गई जिसकी आँतें भूख से बिलबिला रही थीं । उसका पेट उसकी छाती से चिपका हुआ था । वह लगभग बेहोशी के हालत में था। वह भिखारिन उसी के इलाज के नाम पर पैसे मांग रही थी। कुछ लोग कह रह थे ये उसका धंधा है , सड़कों पर घूम रहे लावारिस बच्चों को पकड़कर उनसे भीख मँगवाती है। अब उनसे नहीं रहा गया, उन्होंने उस बच्चे को भिखारिन से पुलिस का डर दिखाकर लिया और  उसका इलाज़ कराया । पहले तो वह उस बच्चे को अनाथाश्रम में छोड़ने की सोच रहे थे किन्तु वह बच्चा उन्हें टकटकी लगाकर देखे जा रहा था जिसे देखकर उनके मन में उस निरीह बालक के प्रति ममता उमड़ आई, वे उसे अपने साथ घर लेकर आ गए। उनकी पत्नी राधा भी बच्चे को देखकर बहुत ख़ुश हुई। उनके बड़े बेटे उमानाथ को अपने साथ खेलने के लिए एक साथी मिल गया था।


वे इस बच्चे को अपने बच्चे की तरह पालने लगे। उनका बेटा भी लगभग उसी के उम्र का था। बच्चे जब बाहर खेलने जाते तो साथ के कुछ बच्चे जो की उनसे उम्र में बड़े थे, उसे "भिखारिन का बेटा" कहकर चिढ़ाते थे। जिसका मतलब उस बच्चे के समझ में नहीं आता था।वह घर आकर कहता "बाबा- क्या मैं आपका सगा बेटा नहीं हूँ,मैं एक भिखारिन का बेटा हूँ"? उनकी पत्नी राधा ने उस मासूम को अपने सीने से चिपका कर कहती -  "आज के बाद   फिर कभी मत कहना कि तुम मेरे बेटे नहीं हो"।


वे तब उन बच्चों को जाकर डांटते थे लेकिन उन्हें लगने लगा था कि इस माहौल में रहना उनलोगों के लिए ठीक नहीं है। कुछ समय बाद वह वहां से दूसरी जगह शिफ़्ट हो गए। धीरे-धीरे अतीत की परतें उस बच्चे के दिमाग से निकल चुकी थीं। उनका अपना बेटा  भी उसे अपना सगा भाई ही समझता था। उन्होंने स्कूल में माता-पिता की जगह अपना ही नाम लिखवाया था। दोनों भाई पढ़ने में काफ़ी होश़ियार थे।


कुछ समय बाद दीनानाथ जी  की पत्नी राधा बीमार पड़ गईं ,वे  इस बीमारी से नहीं उबर पाईं। उनकी  मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास  उनके कुछ पुराने मित्र आये हुए थे। वे आपस में इनलोगों की उदारता के बारे में बाते कर रहे थे कि किस तरह इन लोगों ने एक भिखारिन के बच्चे को अपनाया था। रमानाथ ने उनकी बातें सुन ली थी लेकिन वह अब बड़ा हो चुका  था। उसकी आंखें अपने माता-पिता के अपने प्रति प्यार और त्याग के बारे में सोचकर भर आईं।


अब वह रेलवे में बड़ा अधिकारी है। वह अपने पिता को अपने साथ ही रखता है।उसकी पत्नी भी अपने ससुर का बहुत आदर सम्मान करती है,उनकी हर सुःख सुविधाओं का ध्यान रखती है। उसके दोनों बच्चे उनके साथ खेलते रहते हैं। इस तरह दीनानाथ जी का समय बहुत हंसी-खुशी बीतता है। आज सालों बाद वह उसके मुंह से ऐसी बातें सुनकर स्तब्ध थे, लेकिन उन्होंने कुछ पूछना ठीक नहीं समझा।


दीनानाथ जी ने अपने बेटे को गले से लगा लिया और बोले -अब कभी मत कहना कि "तुम मेरे बेटे नहीं हो", नहीं तो मैं इसे अपनी परवरिश़ की कमी समझूंगा। पिता-पुत्र दोनों की आँखों में ख़ुशी के आंसू थे।


स्नेहलता पाण्डेय "स्नेहिल"

नई दिल्ली

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