ग़ज़ल


विद्या भूषण मिश्र

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बहुत अकेला हूॅं, पास आओ, जी नहीं लगता!

मुझे सुनो भी, कुछ सुनाओ, जी नहीं लगता!!

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बिखर न जाऊॅं कहीं, डर यही सताता है;

यूॅं अकेले न छोड़ जाओ, जी नहीं लगता!!

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ॳॅधेरी रात का मंज़र है, सब चराग़ हैं ग़ुल;

चराग़ फिर कोई जलाओ, जी नहीं लगता!!

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तुम्हारे वास्ते जो गीत लिखे थे मैंने;

मेरे वो गीत गुनगुनाओ, जी नहीं लगता!!

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न कोई शोर, न हलचल, न तमाशा कोई;

सभी पाबंदियाॅं हटाओ, जी नहीं लगता!!

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*- विद्या भूषण मिश्र

, बलिया, उत्तरप्रदेश*

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