मुकेश गौतम
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शहर हो या फिर गाँव हैदराबाद हो या उन्नाव।
महफ़ूज नहीं हूँ कहीं भी अब कहाँ लूं छांव।।
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किस किस दर पर जाऊँ कहाँ पर गुहार लगाऊँ।
किस पर भरोसा जताऊँ जो मैं सुरक्षित पाऊँ।।
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हर राह पर भय की छाया तो घर पर ही कैद हो जाऊँ।
बहुत संकट में हूँ आज अब यहाँ कैसें जी पाऊँ।
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क्या अपराध था मेरा जो जींदा जला दी जाऊँ।
दुःख तो तब होता है जब न्याय भी नहीँ पाऊँ।।
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फिर क्यों यहाँ आई मैं हमेशा अबला ही कहलाऊँ।
सदा औरों के हित हीं रहूँ फिर भी सजा ही पाऊँ।।
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नई बात सिर्फ नो दिन फिर वही अंधेरा पाऊँ।
मैं बिटियाँ जीना चाहती हूँ पर कैसे जी पाऊँ।।
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रचनाकार
-मुकेश गौतम
ग्राम डपटा बूंदी(राज)
19:05:2021