ग़ज़ल

 'ऐनुल' बरौलवी

पत्थर नहीं हुआ अभी , मुझ में है ज़िन्दगी

रोता है दिल बहुत मेरा , आँखों में है नदी


एक बेवफ़ा ने ज़ख़्म कुछ , ऐसा दिया मुझे

तन्हाइयाँ हैं साथ में , ग़ाइब हुई हँसी


उल्फ़त में लुट गया है , मेरा दिल करें तो क्या

ये ज़ीस्त अब भटक रही कैसी है तीरगी


लश्कर ग़मों का आज है , सर पर मेरे बहुत

मैं ढूँढता इधर - उधर , मिलती नहीं खुशी


बाज़ार सज रहा है , हसीनों का देखिये

दिखती नहीं कहीं पे है , दुनिया में सादगी


इंसानियत से बढ़ के , न मज़हब कोई यहाँ

ऐसा न काम कीजिए , हो आदमी दुखी


कहते ग़ज़ल बहुत हैं ,सुख़नवर बहुत हैं आप

महफ़िल में पेश कीजिए , अपनी तो शाइरी


'ऐनुल' कभी झुकाइए सजदे में सर ज़रा

जन्नत मिलेगा आपको करने से बंदगी


 'ऐनुल' बरौलवी

गोपालगंज (बिहार)

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