कैसे आज भूल पड़े
तुम इधर
पडो़स की
हरी भरी बगिया से निकल
मुझ एकाकी के घर!!
जैसे वेंटिलेटर पर पड़े
घर में पड़ गई साँस!!!
कोने कोने
यथावत सजे
सुविधा व समृद्धि - सूचक
सामानों की स्थिति में
गज़ब की चंचलता!
पहले उल्टा फूलदान!
कुछ कलियाँ मसली गईं!
उषा - से गुलाबी करों में!!
कुछ फूल रौंदे गए
कान्हा के रेणुमंडित
घुटनियों के नीचे!!
कुशन सारे उलट पुलट!
गद्दे अपने आसन को तरसे!!
सोफा कवर सारे जमींदोज!!!
सोफा सोहे बिस्कुट के चूरन!!
हेऽऽ टी०वी० के तार
तू न खींच यूँ लल्ला!
स्विच बोर्ड में न डाल ऊँगली
पडूँ मैं तोरी पैंइयांँ!!
इधर कर सबको निहाल
आँखों से हो इलोत
फ्रिज खोल घुस पड़े तुम
भीतर पेंगुइन - से!!
खरगोश से दो दाँत दिखा
बिखेरते निर्मल दूधिया हँसी
का दुर्लभ प्रसाद!!
खींच डाली बोतलें!
बिखेर दीं सब्जियां!!
अंगूरों को मिली
शबरी की सी चखन!!!
फिर घुस पड़े जो रसोई में
बर्तनों की आई शामत!
इधर कटोरी उधर ग्लास
चम्मच छोलनी की टक्कर
कूकर के ढक्कन की खटखट
तुझको कितना ज्यादा भाए!!
आज घर ने सुना दुर्लभ संगीत!
जड़त्व मिटा... आत्मा प्रतिष्ठित!!
मैं पुनः हुई धड़कन स्पंदित!
था इस घर से घर स्व निर्वासित!!
डॉ पंकजवासिनी
"संग्रह" से