साहित्यिक पंडा नामा:८७२

 



 पर्यावरण पर लिखते हुए पर मुझे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की यह कविता स्मरण हो आई-


 अरे! ये पल्लव-बाल!


सजा सुमनों के सौरभ-हार


गूँथते वे उपहार;


अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,


नहीं छूटो तरु-डाल;


विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,


हिलाते अधर-प्रवाल!


दिवस का इनमें रजत-प्रसार


उषा का स्वर्ण-सुहाग;


निशा का तुहिन-अश्रु-श्रृंगार,


साँझ का निःस्वन-राग;


नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार,


तरुणतम-सुन्दरता की आग!


कल्पना के ये विह्वल-बाल,


आँख के अश्रु, हृदय के हास;


वेदना के प्रदीप की ज्वाल।


सत्य यह है कि आज प्रकृति को संरक्षण देने की बहुत आवश्यकता है।अगर हम न चेते, परिणाम भयावह होंगे।स्थिति बहुत खराब है।वर्षा या होती नहीं होती है तो ,महाविनाशकारी होती है। पेड़ों को युद्ध स्तर पर लगाए जाने की आवश्यकता है। जनसंख्या नियंत्रण के कानून के साथ पेड़ लगाने का कानून बने।पेड़ काटना दंडनीय अपराध घोषित हो।


 आज वृक्षारोपण का जन आंदोलन चलाने की आवश्यकता है।हर व्यक्ति के लिए दो पेड़ लगाना और उसे बड़ा करना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।


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