समस्त भारतीय के मन प्राण को संवेदना से सराबोर करने वाली भाषा हिन्दी ही तो है।हम इसी बात से अपनी मातृभाषा की संप्रेषणीयता का अंदाज लगा सकते हैं कि सुषुप्तावस्था में आने वाले ख्वाब हम अपनी मातृभाषा में ही देखते ह़ै न कि सीखी गयी अन्य भाषा में।
जब हम दुख पीड़ा जनित गीत सुनते या रचना पढ़ते हैं तो स्वयंमेव आँसू आँखो़ में छलछला उठते हैं। खुशी के लम्हों में हिंदी गाने सुन स्वयं ही मन झूम उठता है ...यह है हमारी हिंदी की सहज स्वीकार्यता।
यूँ तो आजादी के बाद से हिंदी के समृद्धि और सशक्तिकरण के लिए देश में प्रयास जारी है लेकिन अब भी इसे हमारे देश की बेटियों की भाँति भेदभाव सहना पड़ रहा है। देश के कुछ भू भाग में हिंदी को उपेक्षा का दंश सहना पड़ता है।
यूँ हिंदी अपने हक को आत्मसात कर रही है लेकिन धीमी गति से।बाजारवाद ने हिंदी को काफी प्रभावित किया और यही वजह है कि लोगों ने अंग्रेजीयत को अपनाया।
यदि हिंदी भाषी लोगों को हिंदुस्तान की सियासत रोटी और रोजगार आसानी से मुहैया करवाये तो कोई अंग्रेजी की माला नहीं जपेगा।हिंदी प्रबुद्ध और समर्थ लोगों में ईमानदार जागरूकता आ जाए तो येन केन प्रकारेण हिंदी का संकट दूर किया जा सकता है ।वरना ढोल पिटने से क्या होगा।
आज भी लैपटॉप कंप्यूटर के हिंदी की बोर्ड की कमी खलती है।हिंदी को हिंद के गौरव से जोड़कर देखना और विश्व को दिखाने की जरुरत है।इसके लिए साहित्य ,सिनेमा ,अर्थ बाजार, समाज और खुद स्वयं के जीवन और व्यवहार से हिंदी को संजीदगी से जोड़ना होगा।किसी का अनुगामी बनने के बजाय नयी राह बनानी होगी हर क्षेत्र में।
अपनी कमियों पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करनी होगी।हम़े हिंदी के साथ साथ क्षेत्रिय भाषाओं को भी सम्मान देना होगा।
यह हर्ष की बात है कि हिंदी अब संपर्क भाषा बन रही है।जो हिंदी की लोकप्रियता को दर्शाता है।सबसे सुखद तो ये लगता है कि स्मार्ट फोन ने हमें हिंदी की बोर्ड उपलब्ध करवाया जिससे हम आराम से अपने संवाद प्रेषण अपनी भाषा में सहजता के साथ करते हैं।अर्थात अब हिंदी खूब लिखी जा रही है।इतना कि आज हर व्यक्ति लेखक बनने की दौड़ में खड़ा है ।इसका दुष्प्रभाव ये हुआ कि पाठकों की संख्या घट रही है जो चिंतनीय है।फिर भी हिंदी की सुगंधी पूरे विश्व को सुरभित कर रही है।हमें मिलकर इसे और आगे बढ़ाना है।
जय हिंद !
जय जय हिंदी!!
साधना कृष्ण
वैशाली ,बिहार